अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
यानाव॑ह उश॒तो दे॑व दे॒वांस्तान्प्रेर॑य॒ स्वे अ॑ग्ने स॒धस्थे॑। ज॑क्षि॒वांसः॑ पपि॒वांसो॒ मधू॑न्य॒स्मै ध॑त्त वसवो॒ वसू॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठयान् । आ॒ऽअव॑ह: । उ॒श॒त: । दे॒व॒ । दे॒वान् । तान् । प्र । ई॒र॒य॒ । स्वे । अ॒ग्ने॒ । स॒धऽस्थे॑ । ज॒क्षि॒ऽवांस॑: । प॒पि॒ऽवांस॑: । मधू॑नि । अ॒स्मै । ध॒त्त॒ । व॒स॒व॒: । वसू॑नि ॥१०२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यानावह उशतो देव देवांस्तान्प्रेरय स्वे अग्ने सधस्थे। जक्षिवांसः पपिवांसो मधून्यस्मै धत्त वसवो वसूनि ॥
स्वर रहित पद पाठयान् । आऽअवह: । उशत: । देव । देवान् । तान् । प्र । ईरय । स्वे । अग्ने । सधऽस्थे । जक्षिऽवांस: । पपिऽवांस: । मधूनि । अस्मै । धत्त । वसव: । वसूनि ॥१०२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 3
विषय - अतिथियज्ञ
पदार्थ -
१. हे (देव) = दिव्य गुणों से प्रकाशमय प्रभो! (यान्) = जिन (उशत: देवान् आवहः) = हमारे हित की कामनावाले देवों को आप हमारे समीप प्राप्त कराते हैं, हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (तान्) = उन्हें (स्वे सधस्थे प्रेरय) = अपने सधस्थ में-मिलकर बैठने के स्थान में प्रेरित कीजिए। वे हमारे घर को अपना ही घर समझें। उन्हें यहाँ किसी प्रकार का परायापन अनुभव न हों। २. वे देव यहाँ (जक्षिवांसः) = हव्य [पवित्र] पदार्थों को खाते हुए तथा (मधूनि पपिवांसः) = मधुर रसवाले पेय पदार्थों को पीकर आनन्द से रहें। हे (बसवः) = उत्तम निवास प्राप्त करानेवाले देवो! (अस्मै) = आपका आतिथ्य करनेवाले इस यज्ञशील यजमान के लिए (वसूनि) = ज्ञान के द्वारा निवास के लिए आवश्यक धनों को (प्रधत्त) = प्राप्त कराइए ।
भावार्थ -
हे प्रभो! हमारे घरों में देववृत्ति के विद्वान् आएँ, वे इसे अपना ही घर समझें। उचित खान-पान को प्राप्त करके वे हमारे लिए वसुओं का धारण करें, ज्ञान देकर हमें वसु प्राप्ति के योग्य बनाएँ।
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