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अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - द्विपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तद्यस्मा॑ ए॒वं वि॒दुषे॒ऽलाबु॑नाभिषि॒ञ्चेत्प्र॒त्याह॑न्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । यस्मै॑ । ए॒वम् । वि॒दुषे॑ । अ॒लाबु॑ना । अ॒भि॒ऽसि॒ञ्चेत् । प्र॒ति॒ऽआह॑न्यात् ॥१५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्यस्मा एवं विदुषेऽलाबुनाभिषिञ्चेत्प्रत्याहन्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । यस्मै । एवम् । विदुषे । अलाबुना । अभिऽसिञ्चेत् । प्रतिऽआहन्यात् ॥१५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 6;
मन्त्र » 1
विषय - विषम्-जलम् [ आपः रेतो भूत्वा० ]
पदार्थ -
१. (यस्मै) = जिस (एवं विदुषे) = इसप्रकार जल के महत्त्व को समझनेवाले व्यक्ति के लिए (अलाबुना) = न चूने के द्वारा (तत्) = उस जल का-(आपः रेतो भूत्वा) = रेत:कणों का (अभिषिञ्चेत्) = सेचन करे, अर्थात् यदि प्रभुकृपा से रेत:कणरूप इन जलों का अवलंसन न होकर शरीर में अभिसेचन हो तो वह (प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश करता है (च) = और (न प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश न भी कर पाये तो भी (मनसा) = मन से ('त्वा प्रत्याहन्मि इति') = प्रत्याइन्यात्-तुझे नष्ट करता हूँ, इसप्रकार नष्ट करनेवाला हो। रोग से अभिभूत न होकर वह रोग को अभिभूत करनेवाला बने। मन में स्वस्थ हो जाने' का पूर्ण निश्चय रक्खे। २. (यत् प्रत्याहन्ति) = जो तत्त्व रोगों का नाश करता है (तत्) = वह (विषम् एव) = जलरूप रेत:कण ही उन्हें (प्रत्याहन्ति) = नष्ट करता है। वस्तुतः रेत:कण ही रोगों का नाश करते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार (विषम्) = जल-रेत:कणों के महत्त्व को समझा लेता है, (अस्य) = इसके (अप्रियं भातृव्यम्) = अप्रीतिकर शत्रु [रोगरूप शत्रु] को (अनु) = लक्ष्य करके (विषम् एव विषिच्यते) = यह जल शरीर में सिक्त किया जाता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोग-शत्रुओं के विनाश का कारण बनते हैं।
भावार्थ -
जब मनुष्य रेत:कणों के महत्त्व को समझ लेता है तब इनका अवासन न होने देकर हन्हें शरीर में ही सिक्त करता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोगों का विनाश करते हैं। इनके रक्षण से रोगी का मन रोगाभिभूत नहीं होता।
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