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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - द्विपदार्च्युष्णिक् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    वि॒षमे॒वास्याप्रि॑यं॒ भ्रातृ॑व्यमनु॒विषि॑च्यते॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒षम् । ए॒व । अ॒स्य॒ । अप्रि॑यम् । भ्रातृ॑व्यम् । अ॒नु॒ऽविसि॑च्यते । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विषमेवास्याप्रियं भ्रातृव्यमनुविषिच्यते य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विषम् । एव । अस्य । अप्रियम् । भ्रातृव्यम् । अनुऽविसिच्यते । य: । एवम् । वेद ॥१५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 6; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (यस्मै) = जिस (एवं विदुषे) = इसप्रकार जल के महत्त्व को समझनेवाले व्यक्ति के लिए (अलाबुना) = न चूने के द्वारा (तत्) = उस जल का-(आपः रेतो भूत्वा) = रेत:कणों का (अभिषिञ्चेत्) = सेचन करे, अर्थात् यदि प्रभुकृपा से रेत:कणरूप इन जलों का अवलंसन न होकर शरीर में अभिसेचन हो तो वह (प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश करता है (च) = और (न प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश न भी कर पाये तो भी (मनसा) = मन से ('त्वा प्रत्याहन्मि इति') = प्रत्याइन्यात्-तुझे नष्ट करता हूँ, इसप्रकार नष्ट करनेवाला हो। रोग से अभिभूत न होकर वह रोग को अभिभूत करनेवाला बने। मन में स्वस्थ हो जाने' का पूर्ण निश्चय रक्खे। २. (यत् प्रत्याहन्ति) = जो तत्त्व रोगों का नाश करता है (तत्) = वह (विषम् एव) = जलरूप रेत:कण ही उन्हें (प्रत्याहन्ति) = नष्ट करता है। वस्तुतः रेत:कण ही रोगों का नाश करते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार (विषम्) = जल-रेत:कणों के महत्त्व को समझा लेता है, (अस्य) = इसके (अप्रियं भातृव्यम्) = अप्रीतिकर शत्रु [रोगरूप शत्रु] को (अनु) = लक्ष्य करके (विषम् एव विषिच्यते) = यह जल शरीर में सिक्त किया जाता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोग-शत्रुओं के विनाश का कारण बनते हैं।

    भावार्थ -

    जब मनुष्य रेत:कणों के महत्त्व को समझ लेता है तब इनका अवासन न होने देकर हन्हें शरीर में ही सिक्त करता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोगों का विनाश करते हैं। इनके रक्षण से रोगी का मन रोगाभिभूत नहीं होता।

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