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अथर्ववेद > काण्ड 10 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
    सूक्त - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त

    ब्रह्म॒ श्रोत्रि॑यमाप्नोति॒ ब्रह्मे॒मं प॑रमेष्ठिनम्। ब्रह्मे॒मम॒ग्निं पूरु॑षो॒ ब्रह्म॑ संवत्स॒रं म॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑ । श्रोत्रि॑यम् । आ॒प्नो॒ति॒ । ब्रह्म॑ । इ॒मम् । प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑म् । ब्रह्म॑ । इ॒मम् । अ॒ग्निम् । पुरु॑ष: । ब्रह्म॑ । स॒म्ऽव॒त्स॒रम् । म॒मे॒ ॥२.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्म श्रोत्रियमाप्नोति ब्रह्मेमं परमेष्ठिनम्। ब्रह्मेममग्निं पूरुषो ब्रह्म संवत्सरं ममे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म । श्रोत्रियम् । आप्नोति । ब्रह्म । इमम् । परमेऽस्थिनम् । ब्रह्म । इमम् । अग्निम् । पुरुष: । ब्रह्म । सम्ऽवत्सरम् । ममे ॥२.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 21

    पदार्थ -

    शब्दार्थ = ( पुरुष: ) = मनुष्य  ( ब्रह्म ) = ज्ञान द्वारा  ( श्रोत्रियम् ) = वेद ज्ञानी आचार्य को  ( आप्नोति ) = प्राप्त होता है।  ( ब्रह्म ) = उस ज्ञान से ही  ( इमम् ) = इस  ( परमेष्ठिनम् ) = सबसे ऊपर ठहरनेवाले परमात्मा को प्राप्त होता है।  ( ब्रह्म ) = ज्ञान द्वारा  ( इमम् अग्निम् ) = इस भौतिक अग्नि को और  ( ब्रह्म ) = ज्ञान द्वारा ही  ( संवत्सरम् ) = वर्ष को  ( ममे ) = गिनता है । 

    भावार्थ -

    भावार्थ = इस संसार में चतुर जिज्ञासु पुरुष वेदवेत्ता आचार्य को प्राप्त करता है। उस आचार्य के उपदेश से परम ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। उस वेद द्वारा ही पुरुष भौतिक अग्नि, सूर्य, बिजली आदि दिव्य ज्योतियों को और उनके कार्यों को जानकर महाविद्वान् हो जाता है।

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