अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
ऋषिः - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
91
ब्रह्म॒ श्रोत्रि॑यमाप्नोति॒ ब्रह्मे॒मं प॑रमेष्ठिनम्। ब्रह्मे॒मम॒ग्निं पूरु॑षो॒ ब्रह्म॑ संवत्स॒रं म॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑ । श्रोत्रि॑यम् । आ॒प्नो॒ति॒ । ब्रह्म॑ । इ॒मम् । प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑म् । ब्रह्म॑ । इ॒मम् । अ॒ग्निम् । पुरु॑ष: । ब्रह्म॑ । स॒म्ऽव॒त्स॒रम् । म॒मे॒ ॥२.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्म श्रोत्रियमाप्नोति ब्रह्मेमं परमेष्ठिनम्। ब्रह्मेममग्निं पूरुषो ब्रह्म संवत्सरं ममे ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्म । श्रोत्रियम् । आप्नोति । ब्रह्म । इमम् । परमेऽस्थिनम् । ब्रह्म । इमम् । अग्निम् । पुरुष: । ब्रह्म । सम्ऽवत्सरम् । ममे ॥२.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(पुरुषः) मनुष्य (ब्रह्म=ब्रह्मणा) ब्रह्म [वेद] द्वारा (श्रोत्रियम्) वेदज्ञानी [आचार्य] को और (ब्रह्म) वेद द्वारा (इमम्) इस (परमेष्ठिनम्) सबसे ऊपर ठहरनेवाले [परमात्मा] को (आप्नोति) पाता है। उस [मनुष्य] ने (ब्रह्म) वेद द्वारा (इमम्) इस (अग्निम्) अग्नि [सूर्य, बिजुली और पार्थिव अग्नि] को, (ब्रह्म) वेद द्वारा (संवत्सरम्) संवत्सर [अर्थात् काल] को (ममे) मापा है ॥२१॥
भावार्थ
यह गत मन्त्र का उत्तर है। मनुष्य वेद द्वारा आचार्य और परमेश्वर की आज्ञा पालन करे और सूर्य और काल आदि से उपकार लेवे ॥२१॥
टिप्पणी
२१−(ब्रह्म) सुपां सुलुक्। पा० ७।१।३९। तृतीयार्थे सु। ब्रह्मणा। वेदज्ञानेन। परमेश्वरेण। अन्यत् पूर्ववत्−म० २० ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( पुरुष: ) = मनुष्य ( ब्रह्म ) = ज्ञान द्वारा ( श्रोत्रियम् ) = वेद ज्ञानी आचार्य को ( आप्नोति ) = प्राप्त होता है। ( ब्रह्म ) = उस ज्ञान से ही ( इमम् ) = इस ( परमेष्ठिनम् ) = सबसे ऊपर ठहरनेवाले परमात्मा को प्राप्त होता है। ( ब्रह्म ) = ज्ञान द्वारा ( इमम् अग्निम् ) = इस भौतिक अग्नि को और ( ब्रह्म ) = ज्ञान द्वारा ही ( संवत्सरम् ) = वर्ष को ( ममे ) = गिनता है ।
भावार्थ
भावार्थ = इस संसार में चतुर जिज्ञासु पुरुष वेदवेत्ता आचार्य को प्राप्त करता है। उस आचार्य के उपदेश से परम ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। उस वेद द्वारा ही पुरुष भौतिक अग्नि, सूर्य, बिजली आदि दिव्य ज्योतियों को और उनके कार्यों को जानकर महाविद्वान् हो जाता है।
विषय
'ब्रह्म [ज्ञान]का महत्त्व
पदार्थ
१. (केन) = किस हेतु से (श्रोत्रियम् आप्नोति) = वेदज्ञ आचार्य को प्राप्त करता है, (केन) = किससे (इमम्) = इस (परमेष्ठिनम्) = परम स्थान में स्थित प्रभु को प्राप्त करता है? और (पूरुषः) = पुरुष केन किससे (इमं अग्निम्) = इस अग्नि को (ममे) = मापता है-जान पाता है? (केन) = किससे (संवत्सरम्) = काल को मापता है? २. इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि ब्रह्म-ज्ञान ही (श्रोत्रियम् आप्नोति) = श्रोत्रिय को प्राप्त करता है, अर्थात् ज्ञान के हेतु से ही मनुष्य श्रोत्रिय के समीप जाता है। (ब्रह्म इमं परमेष्ठिनम्) = ज्ञान ही इस परमेष्ठी को प्राप्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही प्रभु की प्रासि होती है। (पूरुषः) = पुरुष (ब्रह्म इमं अग्निं ममे) = ज्ञान के द्वारा इस अग्नि को मापनेवाला होता है और (ब्राह्म संवत्सरं ममे) = ज्ञान ही काल को मापता है। मनुष्य ज्ञान द्वारा ही यज्ञिय अग्नि के महत्त्व को व कालचक्र की गति को जान पाता है।
भावार्थ
ज्ञान के हेतु से मनुष्य वेदज्ञ आचार्य को प्राप्त करता है। प्राप्त ज्ञान से प्रभु को प्राप्त करता है। ज्ञान से ही यज्ञिय अग्नि में यज्ञादि कर्मों को करता है और कालचक्र की गति को समझता हुआ समय पर कार्यों को करनेवाला बनता है।
भाषार्थ
(ब्रह्म श्रोत्रियमाप्नोति) ब्रह्म श्रोत्रिय को प्राप्त होता है, (ब्रह्म इमम् परमेष्ठिनम्) ब्रह्म इस परमेष्ठी को प्राप्त होता है। (ब्रह्म पूरुषः) ब्रह्म पुरुष (इमम् अग्निम्) इस ज्ञानाग्निमय व्यक्ति को प्राप्त होता है, (ब्रह्म) ब्रह्म ने (संवत्सरम्, ममे) संवत्सर को मापा या उस का निर्माण किया है।
टिप्पणी
[मन्त्र में, मन्त्र २० के विचारों को परिपुष्ट किया है]।
विषय
पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।
भावार्थ
(पूरुषः) पुरुष (ब्रह्म) ब्रह्म, वेदज्ञान के लिये (श्रोत्रियम् आप्नोति) श्रुति=वेदज्ञानी ब्रह्म के विद्वान् ब्राह्मण के पास जाता है। और (ब्रह्म) ब्रह्म-ज्ञान से वह (परमेष्ठिनम्) परमपद में स्थित ब्रह्म को प्राप्त होता है। (ब्रह्म) ब्रह्म, ब्रह्मज्ञान और वेदाभ्यास से (इमम् अग्निम्) इस अग्नि को, इस जीवात्मा को भी प्राप्त करता, साक्षात् करता है (ब्रह्म संवत्सरं ममे) और ब्रह्म से ही उस कालमय संवत्सर का ज्ञान करता है।
टिप्पणी
(तृ० च०) ‘ब्रह्मयज्ञस्य श्रद्धा ब्रह्मास्मि च हतं मनः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kena Suktam
Meaning
Brahma blesses the man of the Veda for his knowledge and vision. Brahma blesses this man of supreme Divinity for his faith and communion. The Supreme Purusha lights this fire for the purpose of yajna. And Brahma forms and comprehends cosmic time by immanence and transcendence.
Translation
By knowledge lie finds a learned and wise guide. By knowledge he realizes the Lord of the highest abode. By knowledge man gains this fire divine. By knowledge he measures the year.
Translation
Through the Knowledge of the Veda he attains the company of learned priest, through the Vedic knowledge he attains the Supreme Lord, through this Vedic Knowledge the man knows fire and through it he measures out the year.
Translation
For Vedic knowledge does man go near a learned preceptor. Through Vedic knowledge does he gain this Lord Supreme. Through Vedic study does he visualize soul. Through the Vedas does he acquire the knowledge of God,, the Controller of Time.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(ब्रह्म) सुपां सुलुक्। पा० ७।१।३९। तृतीयार्थे सु। ब्रह्मणा। वेदज्ञानेन। परमेश्वरेण। अन्यत् पूर्ववत्−म० २० ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
ব্রহ্ম শ্রোত্রিয়মাপ্নোতি ব্রহ্মেমং পরমেষ্ঠিনম্।
ব্রহ্মেমমগ্নিং পূরুষো ব্রহ্ম সংবৎসরং মমে ।।৩৬।।
(অথর্ব ১০।২।২১)
পদার্থঃ (পুরুষঃ) মানুষ (ব্রহ্ম) জ্ঞান দ্বারা (শ্রোত্রিয়ম্) বেদ জ্ঞানী আচার্যকে (আপ্নোতি) প্রাপ্ত হয়। (ব্রহ্ম) সেই জ্ঞান দ্বারাই (ইমম্) এই (পরমেষ্ঠিনম্) পরম স্থানে অধিষ্ঠিত পরমাত্মাকে প্রাপ্ত করে । (ব্রহ্ম) জ্ঞান দ্বারাই (ইমম্ অগ্নিম্) এই ভৌতিক অগ্নিকে জানে এবং (ব্রহ্ম) জ্ঞান দ্বারাই (সংবৎসরম্) বর্ষ (মমে) গণনা করে থাকে।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ এই সংসারে চতুর জিজ্ঞাসু ব্যক্তিরা বেদবেত্তা আচার্যের সান্নিধ্য গ্রহণ করেন। সেই আচার্যের উপদেশেই সাধারণ মানুষ পরম ব্রহ্মকে লাভ করেন। সেই বেদ জ্ঞান দ্বারাই ব্যক্তি ভৌতিক অগ্নি, সূর্য, বিদ্যুৎ আদি দিব্য পদার্থকে এবং সে সকলের কার্যপ্রণালী জেনে মহাবিদ্বান হয়ে ওঠে।।৩৬।।
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