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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
    ऋषिः - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
    81

    केन॑ दे॒वाँ अनु॑ क्षियति॒ केन॒ दैव॑जनीर्विशः। केने॒दम॒न्यन्नक्ष॑त्रं॒ केन॒ सत्क्ष॒त्रमु॑च्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    केन॑ । दे॒वान् । अनु॑ । क्षि॒य॒ति॒ । केन॑ । दैव॑ऽजना: । विश॑: । केन॑ । इ॒दम् । अ॒न्यत् । नक्ष॑त्रम् । केन॑ । सत् । क्ष॒त्रम् । उ॒च्य॒ते॒ ॥२.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    केन देवाँ अनु क्षियति केन दैवजनीर्विशः। केनेदमन्यन्नक्षत्रं केन सत्क्षत्रमुच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    केन । देवान् । अनु । क्षियति । केन । दैवऽजना: । विश: । केन । इदम् । अन्यत् । नक्षत्रम् । केन । सत् । क्षत्रम् । उच्यते ॥२.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 22
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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    वह [मनुष्य] (केन) किस के द्वारा (देवान्) स्तुतियोग्य गुणों, और (केन) किस के द्वारा (दैवजनीः) दैव [पूर्वजन्म के अर्जित कर्म] से उत्पन्न (विशः अनु) मनुष्यों में (क्षियति) रहता है। (केन) किस के द्वारा (इदम्) यह (सत्) सत्य (क्षत्रम्) राज्य, और (केन) किसके द्वारा (अन्यत्) दूसरा [भिन्न] (नक्षत्रम्) अराज्य (उच्यते) बताया जाता है ॥२२॥

    भावार्थ

    विचारशील मनुष्य उत्तम गुणों और उत्तम लोगों से मिलने, धर्मयुक्त राज्य की विधि और अधर्मयुक्त कुराज्य के निषेध पर विचार करे। इस का उत्तर आगामी मन्त्र में है ॥२२॥

    टिप्पणी

    २२−(केन) केन द्वारा (देवान्) दिव्यगुणान् (अनु) अनुलक्ष्य (क्षियति) निवसति (केन) (दैवजनीः) देवाद् यञञौ। वा० पा० ४।१।८५। देव-अञ्। दैवात् पूर्वजन्मार्जितकर्मणो जाताः (विशः) प्रजाः। मनुष्यान्-निघ० २।३ (केन) (इदम्) प्रत्यक्षम् (अन्यत्) भिन्नम् (नक्षत्रम्) नभ्राण्नपान्नवेदानासत्या०। पा० ६।३।७५। इति नञः प्रकृतिभावः, नक्षत्रम् अक्षत्रम् अराज्यं कुराज्यम् (केन) (सत्) सत्यम्। धर्म्यम् (क्षत्रम्) राज्यम् (उच्यते) कथ्यते ॥

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    विषय

    न-क्षत्रं-सत् क्षत्रम्

    पदार्थ

    १. (केन) = किस सामर्थ्य से मनुष्य (देवान् अनु क्षियति) = देवों के साथ निवास करता है दिव्य गुणों को अपने में बढ़ानेवाला बनता है ? (केन) = किस सामर्थ्य से (दैवजनी: विश:) = प्रभु से उत्पादित प्रजाओं के साथ अनुकूलता से निवास कर पाता है ? (केन अन्यत्) = किससे भिन्न रहित होकर (इदम्) = यह (न-क्षत्रम्) = क्षतों से अपना त्राण करनेवाला नहीं होता, और (केन = -किसके द्वारा (सत् क्षत्रम्) = उत्तम बलस्वरूप [क्षत्रों से अपना त्राण करनेवाला] (उच्यते) = कहा जाता है। २. (ब्रह्म देवान् अनु क्षियति) = ज्ञान से यह पुरुष देवों के साथ निवास करता है। (ब्रह्म दैवजनी: विशः) [अनुक्षियति] = ज्ञान द्वारा देव से उत्पादित प्रजाओं के साथ अनुकूलता से निवास करता है। (ब्रह्म अन्यत्) = ब्रह्म से रहित (इदं नक्षत्रम्) = यह निर्वीर्य है। (ब्रह्म) = ज्ञान ही (सत् क्षत्रम्) = उत्तम बल (उच्यते) = कहा जाता है।

    भावार्थ

    ज्ञान से दिव्यगुणों का विकास होता है। ज्ञान से मनुष्य सब प्रजाओं के साथ अनुकूलतापूर्वक निवास करता है। ज्ञानशून्यता ही निर्वीर्यता है। ज्ञान ही उत्कृष्ट बल है।

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    भाषार्थ

    (केन) किस कारण [ब्रह्म] (देवान् अनु क्षियति) देवों में निरन्तर अर्थात् सदा निवास करता है, (केन) किस कारण (दैवजनीः) देवों द्वारा उत्पादित (विशः) प्रजाओं अर्थात् सन्तानों में निरन्तर निवास करता है। (केन) किस कारण (अन्यत्) देवों और दैवजनी प्रजाओं से भिन्न (इदम्) इस (नक्षत्रम् = नक्ष + त्रम्), अभ्यागतों के पालक में वह सदा निवास करता है, (केन) किस कारण [ब्रह्म] (सत्) वास्तविक (क्षत्रम् = क्षत् + त्रम्) क्षतों से त्राता (उच्यते) कहा जाता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में देव आदि पद हेतुगर्भित हैं, अर्थात् इन के यौगिक अर्थों में हेतु निहित है। परमेश्वर देवों में निरन्तर निवास करता है, चूंकि वे देव हैं, दिव्य गुण कर्मों वाले हैं। वे सदा प्रत्येक कार्य में "ओ३म् क्रतो स्मर" (यजु० ४०।१५) के अनुसार परमेश्वर का सदा स्मरण करते हैं, इसलिये परमेश्वर उन के हृदयों में सदा निवास करता है। वह "दैवजनीः" प्रजाओं अर्थात् देवरूप माता-पिता द्वारा जनित सन्तानों में भी सदा निवास करता है। दिव्य गुणकर्मों वाले माता-पिता की सन्तानें भी देवकोटि की होंगी, यह सम्भावना है। नक्षत्रम् = नक्ष (गतौ) तथा नक्षति गतिकर्मा, (निघं० २।१४) + त्रैङ् (पालने); अर्थात् अभ्यागतों, अतिथियों आदि की पालना करने वाला सद्गृहस्थी इन्हें ब्रह्मरूप जान कर इन की सेवा तथा पालना करता है (अथर्व० ९।६ (१)। १), अतः इसे सदा ब्रह्म का ध्यान रहता है, मानो ब्रह्म ऐसे सद्गृहस्थ के हृदय में सदा निवास करता है। 'सत् क्षत्रम् = ब्रह्म ही एक वास्तविक, क्षतों से त्राण करने वाला है, अतः वह सच्चा१ क्षत्र है।] [१. अथवा देवान्=ब्राह्मण। दैवजनीः विशः = दिव्यजन्मों वाले वैश्य। नक्षत्रम्=जो कि क्षत्रिय नहीं, अर्थात् शुद्र। सत् क्षत्रम्= सच्चे क्षत्रिय। चार वर्णों के व्यक्ति भी यदि अपने- अपने नियत कर्तव्यों का पालन धर्मानुसार करते हैं तो परमेश्वर उन्हें प्राप्त हो जाता है। अर्थात् देव वस्तुतः दिव्यगुणी हों, सच्चे ब्राह्मण हों, ब्रह्मोपासक तथा वेदज्ञ हों। वैश्य देश-देशान्तरों में प्रवेश कर व्यापार द्वारा प्रजा का पालन करें। शुद्र सेवा कर्म में शीघ्रकारी हों, निरालस हों। क्षत्रिय क्षतों से त्राण में व्यापृत होकर "सत्" क्षत्र कहलाने योग्य हों। शुद्र=आशु, शु वा द्रवति = शीघ्रगतिक, शीघ्रकारी। “आशु, शु, इति क्षिप्रनामनी भवतः" (निरुक्त ६।१।१)।]

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    विषय

    पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।

    भावार्थ

    (देवान्) देवों, विद्वानों और परमात्मा के रचे दिव्य पदार्थों को (केन) किस सामर्थ्य से (अनु क्षियति) अपने वश करता है, उनको अपने अनुकूल करता है ? (दैवजनीः विशः) देव=परमात्मा से उत्पादित पशु पक्षी कीटपतङ्ग आदि प्रजाओं को (केन) किस सामर्थ्य से (अनुक्षियति) अपने अनुकूल बना कर उनके साथ रहता है ? अथवा (देवान्) प्राणों को और (दैवजनीः विशः) प्राण से उत्पन्न उप-प्राणों के साथ यह पुरुष=आत्मा (केन) किस सामर्थ्य से (अनुक्षियति) एक ही देह में रहता है ? (केन अन्यत्) किससे विरहित होकर (इदम्) यह (नक्षत्रम्) नक्षत्र वीर्य हीन है, और (केन सत्) किसके साथ विद्यमान रह कर यह (क्षत्रम्) क्षत्र=बलस्वरूप चेतन (उच्यते) कहा जाता है।

    टिप्पणी

    ‘केन देवीरजनयद् विशः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kena Suktam

    Meaning

    By which mystery does the Purusha pervade the divine powers of existence? By which mystery, the people, children of divinity? Whereby is the Order called real, and this other, no-order?

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    Translation

    By what does he dwell with the enlightened ones, and by what with the people of godly nature ? By what is this other one is called the non-rulling power, and by what the real ruling power ? (Daivajanirvisah people of godly nature; naksatram = non-ruling; ksartam = ruling power).

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    Translation

    Through which power the men brings under his control the marvelous powers, through which power he contacts the celestial bodies, why is this other body called star and why is this present world is called powerful.

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    Translation

    Through what power doth man control the forces of Nature? Through what power does he make cattle, birds, insects created by God subservient to him? Bereft of what power is man powerless? Equipped with what power is he called full of strength and consciousness?

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(केन) केन द्वारा (देवान्) दिव्यगुणान् (अनु) अनुलक्ष्य (क्षियति) निवसति (केन) (दैवजनीः) देवाद् यञञौ। वा० पा० ४।१।८५। देव-अञ्। दैवात् पूर्वजन्मार्जितकर्मणो जाताः (विशः) प्रजाः। मनुष्यान्-निघ० २।३ (केन) (इदम्) प्रत्यक्षम् (अन्यत्) भिन्नम् (नक्षत्रम्) नभ्राण्नपान्नवेदानासत्या०। पा० ६।३।७५। इति नञः प्रकृतिभावः, नक्षत्रम् अक्षत्रम् अराज्यं कुराज्यम् (केन) (सत्) सत्यम्। धर्म्यम् (क्षत्रम्) राज्यम् (उच्यते) कथ्यते ॥

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