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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
    ऋषिः - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
    97

    मू॒र्धान॑मस्य सं॒सीव्याथ॑र्वा॒ हृद॑यं च॒ यत्। म॒स्तिष्का॑दू॒र्ध्वः प्रैर॑य॒त्पव॑मा॒नोऽधि॑ शीर्ष॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒र्धान॑म् । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽसीव्य॑ । अथ॑र्वा । हृद॑यम् । च॒ । यत् । म॒स्तिष्का॑त् । ऊ॒र्ध्व: । प्र । ऐ॒र॒य॒त् । पव॑मान: । अधि॑ । शी॒र्ष॒त: ॥२.२६।


    स्वर रहित मन्त्र

    मूर्धानमस्य संसीव्याथर्वा हृदयं च यत्। मस्तिष्कादूर्ध्वः प्रैरयत्पवमानोऽधि शीर्षतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मूर्धानम् । अस्य । सम्ऽसीव्य । अथर्वा । हृदयम् । च । यत् । मस्तिष्कात् । ऊर्ध्व: । प्र । ऐरयत् । पवमान: । अधि । शीर्षत: ॥२.२६।

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 26
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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (पवमानः) शुद्ध स्वभाव (अथर्वा) निश्चल परमात्मा (अस्य) इस [मनुष्य] के (मूर्धानम्) शिर (च) और (यत्) जो कुछ (हृदयम्) हृदय है [उसको भी] (संसीव्य) आपस में सींकर, (मस्तिष्कात्) भेजे [मस्तक बल] से (ऊर्ध्वः) ऊपर होकर (शीर्षतः अधि) शिर से ऊपर (प्र ऐरयत्) बाहिर निकल गया ॥२६॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने मनुष्य के शिर और हृदय को नाड़ियों द्वारा आपस में मिलाकर विवेक सामर्थ्य दिया है, परन्तु वह आप अनन्त अनादि सर्वशक्तिमान् होकर मनुष्य की समझ से बाहिर है ॥२६॥

    टिप्पणी

    २६−(मूर्धानम्) अ० ३।६।६। मस्तकम् (अस्य) मनुष्यस्य (संसीव्य) सम्+षिवु तन्तुसन्ताने-ल्यप्। संवाय। तन्तुभिर्नाडिभिर्यथा संगतं कृत्वा (अथर्वा) अ० ४।१।७। अ+थर्व चरणे=गतौ-वनिप्। अथर्वाणोऽथर्वन्तस्थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० ११।१८। निश्चलः परमात्मा (हृदयम्) (च) (यत्) (मस्तिष्कात्) अ० २।३३।१। मस्तकस्नेहात्। मस्तकबलात् (ऊर्ध्वः) (प्र) बहिः (ऐरयत्) आगच्छत् (पवमानः) अ० ३।३१।२। शुद्धस्वभावः (अधि) उपरि (शीर्षतः) मस्तकात् ॥

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    विषय

    मूधीनं हृदयं संसीव्य

    पदार्थ

    १. (अथर्वा) = [अ-थर्व] स्थिरवृत्ति का मनुष्य अथवा आत्मनिरीक्षण करनेवाला मनुष्य [अथ अर्वाड़] (यत्) = जब (अस्य) = इस देह के (मूर्धानं हृदयं च) = मस्तिष्क व हृदय को (संसीव्य) = सीकर, अर्थात् ज्ञान और श्रद्धा का परस्पर मेल करके (मस्तिष्कात्) = मस्तिष्क [brain, ज्ञान] के द्वारा अपने को (ऊर्ध्वः प्रैरयत्) = ऊपर प्रेरित करता है। श्रद्धा-विरहित ज्ञान उत्थान का हेतु न होकर अवनति का कारण बन जाता है। २. तब (शीर्षतः अधि) = [अधि पञ्चम्यर्थानुवादी] यह अथर्वा सिर से (पवमान:) = अपने को पवित्र करनेवाला बनता है-ज्ञान इसकी पवित्रता का हेतु होता है।

    भावार्थ

    हम स्थिर-वृत्तिबाले व आत्मनिरीक्षण की वृत्तिवाले बनें। अपने जीवन में ज्ञान व श्रद्धा का समन्वय करें। यह श्रद्धा-समन्वित ज्ञान हमारे उत्थान का कारण बनेगा। यह हमें पवित्र बनाएगा।

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    भाषार्थ

    (अस्य) इस मानुष पुरुष के (मूर्धानम्) मूर्धा को, (च) और (यत्) जो (हृदयम्) हृदय है उसे (संसीव्य) परस्पर में सीकर, जोड़ कर, (पवमानः) पवित्र करने वाले, (ऊर्ध्वः) सांसारिक लेपों से उपर उठे हुए, (अथर्वा) अचल, कूटस्थ परमेश्वर१ ने (शीर्षतः अधि) सिर में स्थित (मस्तिष्कात्) मस्तिष्क से (प्रैरयत्) शरीर में प्रेरणाएं दी हैं।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर ने मूर्धा ओर हृदय को परस्पर जोड़ा है। इस का अभिप्राय यह है कि विचारों और भावनाओं में परस्पर समन्वय और सामञ्जस्य होना चाहिये। परमेश्वर "ऊर्ध्वः" है। यथा "त्रिपाद्दूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः" (त० ३१।४)। शीर्षतः=सप्तम्यर्थे तसिल्, तसिल् सार्वविभक्तिकः।] [१. मन्त्र में "अथर्वा" पद परमेश्वरार्थक प्रतीत होता है। अथर्ववेद में जितना विस्तृत और स्पष्ट वर्णन परमेश्वर का है उतना अन्य किसी वेद में नहीं मिलता। सम्भवतः अथर्वा के वर्णन के कारण इस वेद का नाम "अथर्ववेद" हो।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kena Suktam

    Meaning

    Atharva, the Lord beyond all motion, having integrated the head and heart of man together, thus purifying and sanctifying the personality, transcends both thought and emotion. Note: This is one interpretation of the mantra if Atharva is interpreted as Brahma. But the mantra can be interpreted from the human point of view also, in which case Atharva should be interpreted as the yogi who has achieved the state of ‘Chitta-vrtti-nirodha’, i.e., the state of peace of mind beyond fluctuations: Atharva, the yogi in a state of tranquillity, having integrated thought and emotion together, in a state of purity of head, heart and the spirit should transcend Vitarka and Vichara samadhi through the trans- imaginative faculty of the spirit in concentration on the sahasrara chakra on top of the head and brain.

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    Translation

    Stiching his head and the heart, the uninjuring Lord, urges forth the purifying breath above the brain in the head. (Sahsivya = having stiched).

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    Translation

    The Great God with his power has sewn the head and heart this man, and He himself as Pavamana, the transcendental power raised him high above from him head and his brain.

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    Translation

    A steady yogi uniting together his head and heart, impels the breath in the head above the brain.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २६−(मूर्धानम्) अ० ३।६।६। मस्तकम् (अस्य) मनुष्यस्य (संसीव्य) सम्+षिवु तन्तुसन्ताने-ल्यप्। संवाय। तन्तुभिर्नाडिभिर्यथा संगतं कृत्वा (अथर्वा) अ० ४।१।७। अ+थर्व चरणे=गतौ-वनिप्। अथर्वाणोऽथर्वन्तस्थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० ११।१८। निश्चलः परमात्मा (हृदयम्) (च) (यत्) (मस्तिष्कात्) अ० २।३३।१। मस्तकस्नेहात्। मस्तकबलात् (ऊर्ध्वः) (प्र) बहिः (ऐरयत्) आगच्छत् (पवमानः) अ० ३।३१।२। शुद्धस्वभावः (अधि) उपरि (शीर्षतः) मस्तकात् ॥

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