अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
ऋषिः - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - भरिग्बृहती
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
111
ऊ॒र्ध्वो नु सृ॒ष्टास्ति॒र्यङ्नु सृ॒ष्टा३स्सर्वा॒ दिशः॒ पुरु॑ष॒ आ ब॑भू॒वाँ३। पुरं॒ यो ब्रह्म॑णो॒ वेद॒ यस्याः॒ पुरु॑ष उ॒च्यते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्व: । नु । सृ॒ष्टा३: । ति॒र्यङ् । नु । सृ॒ष्टा३: । सर्वा॑: । दिश॑: । पुरु॑ष: । आ । ब॒भू॒वाँ३ । पुर॑म् । य: । ब्रह्म॑ण: । वेद॑ । यस्या॑: । पुरु॑ष: । उ॒च्यते॑ ॥२.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वो नु सृष्टास्तिर्यङ्नु सृष्टा३स्सर्वा दिशः पुरुष आ बभूवाँ३। पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्व: । नु । सृष्टा३: । तिर्यङ् । नु । सृष्टा३: । सर्वा: । दिश: । पुरुष: । आ । बभूवाँ३ । पुरम् । य: । ब्रह्मण: । वेद । यस्या: । पुरुष: । उच्यते ॥२.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(नु) क्या (ऊर्ध्वः) ऊँचा (सृष्टाः ३) उत्पन्न होता हुआ और (नु) क्या (तिर्यङ्) तिरछा (सृष्टाः ३) उत्पन्न होता हुआ (पुरुषः) वह मनुष्य (सर्वाः दिशः) सब दिशाओं में (आ) यथावत् (बभूवाँ ३) व्यापा है ? (यः) जो [मनुष्य] (ब्रह्मणः) ब्रह्म [परमात्मा] की (पुरम्) [उस] पूर्ति को (वेद) जानता है, (यस्याः) जिस [पूर्ति] से [वह परमेश्वर] (पुरुषः) पुरुष [परिपूर्ण] (उच्यते) कहा जाता है ॥२८॥
भावार्थ
अब यह प्रश्न है कि जो योगी परमात्मा को साक्षात् कर लेता है, क्या उसके भीतर सब संसार में व्यापने की शक्ति हो जाती है ? इस का उत्तर अगले मन्त्र में है ॥२८॥
टिप्पणी
२८−(ऊर्ध्वः) उच्चस्थः (नु) प्रश्ने। किम् (सृष्टाः ३) विचार्यमाणानाम्। पा० ८।२।९७। इति टेः प्लुतः। सम्यक् सृष्टः (तिर्यङ्) वक्रगामी (नु) (सृष्टाः ३) (सर्वाः) (दिशः) (आ) समन्तात् (बभूवाँ ३) विचार्यमाणानाम्। पा० ८।२।९७। टेः प्लुतः। अणोऽप्रगृह्यस्यानुनासिकः। पा० ८।४।५७। इत्यनुनासिकः। बभूव। व्याप (पुरम्) क्विप् च। पा० ३।२।७६। पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२। उकारादेशः। पूर्तिम्। नगरीम् (यः) योगी (ब्रह्मणः) परमेश्वरस्य (वेद) जानाति (यस्याः) पुरः सकाशात्। पूर्तिकारणात् (पुरुषः) पुरः कुषन्। उ० ४।७४। पुर अग्रगमने-कुषन्, यद्वा, पॄ पालनपूरणयोः-कुषन्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२। उकारः। यद्वा पुर्+षद्लृ गतौ, यद्वा, शीङ् स्वप्ने षस स्वप्ने वा−ड, पृषोदरादिरूपम्। पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा-निरु० २।३। अग्रगामी। पूरयिता। परिपूर्णः। परमेश्वरः। मनुष्यः (उच्यते) कथ्यते ॥
विषय
ऊर्ध्व, तिर्यकः, सर्वाः दिश:
पदार्थ
१. (नु) = निश्चय से वह प्रभु (ऊर्ध्व: सुष्टा:) = ऊपर [ascertained-obtained, certain knowl edge of] ज्ञात होते हैं-ऊपर द्युलोक के एक-एक पिण्ड में प्रभु की महिमा प्रकट होती है। (तिर्यक् नुसृष्टा:) = निश्चय से एक किनारे से दूसरे किनारे तक [तिर्यक्-crosswise] उस प्रभु का निश्चय होता है। कहीं देखो, सर्वत्र उस प्रभु की महिमा दिखती है। (सर्वाः दिश:) = सब दिशाओं में (पुरुषः आबभूव) = वह पुरुष व्यास हो रहा है। ('यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः'-'पर्वत, समुद्र, पृथिवी') = सब उस प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर रहे हैं। २. (य:) = [यम् उ] संयमी पुरुष ही (ब्रह्मण: पुरं वेद) = ब्रह्म की इस नगरी को जान पाता है, (यस्याः पुरुषः उच्यते) = जिस कारण से ये ब्रह्म पुरुष कहलाते हैं-'पुरि वसति'-पुरी में रहनेवाले हैं। ब्रह्माण्ड प्रभु का पुर है, इसमें वे प्रभु सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं।
भावार्थ
वे प्रभु ऊपर युलोक के पिण्डों में अपनी महिमा से प्रकट हो रहे हैं। एक सिरे से दूसरे सिरे तक सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में प्रभु की महिमा प्रकट है। सब दिशाओं में वे व्याप्त हो रहे हैं। संयमी पुरुष ही उस ब्रह्म की ब्रह्माण्डरूप पुरी को जान पाता है। इस पुरी में निवास के कारण ही तो प्रभु 'पुरुष' कहलाते हैं।
सूचना
यहाँ 'सृष्टाः३' आदि में विचार्यमाणानाम्' इस सूत्र से 'टि' को प्लुत हुआ है।
भाषार्थ
(ऊर्ध्वः) ऊर्ध्व की ओर (सृष्टा ३ः) सृष्ट१ हुआ, (तिर्यङ्=तिर्यक्) पार्श्वो तथा नीचे की ओर भी (सृष्टा ३:) सृष्ट हुआ (पुरुषः) ब्रह्म-पुरुष (सर्वाः दिश:) शरीर की सब दिशाओं में (आबभूवां ३ न्) सर्वत्र सत्तावान् हुआ है, स्थित हुआ है। (यः) जो (ब्रह्मणः पुरम्२) ब्रह्म की इस पुरी को (वेद) जानता है, (यस्याः) जिस के सम्बन्ध से [ब्रह्म] (पुरुषः उच्यते) "पुरुष" नाम से कहा जाता है।
टिप्पणी
[शरीर के ऊर्ध्व, पार्श्वों, तथा नीचे की सब दिशाओं में ब्रह्म व्याप्त है। शरीर, ब्रह्म की पुरी है, इस पुरी में शयन या वास करने से ब्रह्म को पुरुष कहते हैं, "पुरिशेते इति पुरुषः" अथवा "पुरिवसति (वस्= उस्, उष्) इति पुरुषः"। मन्त्र में जीवात्मा का वर्णन नहीं, जीवात्मा शरीर के परिमाण वाला नहीं होता। मन्त्र का सम्बन्ध अगले मन्त्रों के साथ है।] [१. जब पुरुष अर्थात् जीवात्मा यह जान लेता है कि "ब्रह्म-पुरुष" उस के ऊर्ध्व अर्थात् मस्तिष्क में, नीचे के भागों तथा पार्श्वो में व्याप्त है तब मानों इन भागों में उस के लिये ब्रह्म "सृष्ट" हो गया है, उस के ये भाग या अवयव ब्राह्मी सत्ता सम्पन्न हो गए हैं। इसलिये वह तदनुरूप सोचने तथा कार्य करने लगता है, और उसे मन्त्र २९ में कथित फलों की प्राप्ति होने लगती है। २. ब्रह्माण्ड को भी ब्रह्म की पूरी समझा जा सकता है। इस पुरी में निवास करने से भी ब्रह्म "पुरुष" कहलाता है।]
विषय
पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।
भावार्थ
(पुरुष) पुरुष (नु) क्या (ऊर्ध्वः) ऊपर ऊंचे खड़े हुए रूप में या मनुष्य से उच्च योनि में, (सृष्टः) उत्पन्न किया गया था या (तिर्यङ्नु) वह तिरछे या तिर्यग्-योनि में (सृष्टः*) उत्पन्न किया गया था या (सर्वा दिशः) सब दिशाओं में (पुरुष) पुरुष (आ-बभूव) प्रकट हुआ था ? अर्थात्, ऊर्ध्व=इस मनुष्यलोक से ऊपर कोई और इससे उच्च योनि में प्रथम पुरुष उत्पन्न हुआ था कि जिससे ये सब मनुष्य पीछे उत्पन्न हुए या वह पुरुष प्रथम तिर्यक् योनि में उत्पन्न हुआ था और या सभी दिशाओं में अर्थात् सभी योनियों में वह पुरुष आत्मा प्रकट हुआ यह वितर्क उठा करता है ? अथवा—वह पुरुष (ऊर्ध्वा) ऊपर ही द्यौलोक में प्रकट हुआ था, तिर्यङ्=अन्तरिक्ष लोक में प्रकट हुआ या सभी दिशाओं में उसकी सत्ता रही यह सदा वितर्क उठता है। इसकी विवेचना उचित रीति से करनी चाहिये। (यः) जो विद्वान् (ब्रह्मणः) ब्रह्म की (पुरं) उस पुर् को जिसके भीतर रहने से वह आत्मा (पुरुष) पुरुष (उच्यते) कहा जाता हैं—जानता है वही इस तर्क का समाधान कर सकता है।
टिप्पणी
‘विचार्यमाणानामिति टेः प्लुतः’।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kena Suktam
Meaning
Pervasive all above, pervasive all around, pervasive all over quarters of space, pervasive all through the personality, thus becomes the state of divine Purusha for the yogi, and thus becomes his own state also. One who knows thus the City of immanent God, for him for this reason, Brahma is called Cosmic Purusha, and man is called microcosmic Purusha.
Translation
Whether created vertically or created horizontally, all the quarters the cosmic man pervades. He whoso knows the castle of the Lord supreme, is called purusa (man) due to this. (Urdhavah srstā = vertically created; tiryan srstā = horizontally or cross-wise created).
Translation
Has the Spirit of Universe stretched on high, pervaded all The regions and spread this cosmos aloft and stretched transversely? He who knows the caste of Brahman, the Universe on the base of which He is called Purusha, can answer this question.
Translation
Was man created in Heaven, or the atmosphere or in all directions is a question worth consideration. He who knows the Creation of God, can best answer this question. The soul is called Purusha as it lives in the world created by God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२८−(ऊर्ध्वः) उच्चस्थः (नु) प्रश्ने। किम् (सृष्टाः ३) विचार्यमाणानाम्। पा० ८।२।९७। इति टेः प्लुतः। सम्यक् सृष्टः (तिर्यङ्) वक्रगामी (नु) (सृष्टाः ३) (सर्वाः) (दिशः) (आ) समन्तात् (बभूवाँ ३) विचार्यमाणानाम्। पा० ८।२।९७। टेः प्लुतः। अणोऽप्रगृह्यस्यानुनासिकः। पा० ८।४।५७। इत्यनुनासिकः। बभूव। व्याप (पुरम्) क्विप् च। पा० ३।२।७६। पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२। उकारादेशः। पूर्तिम्। नगरीम् (यः) योगी (ब्रह्मणः) परमेश्वरस्य (वेद) जानाति (यस्याः) पुरः सकाशात्। पूर्तिकारणात् (पुरुषः) पुरः कुषन्। उ० ४।७४। पुर अग्रगमने-कुषन्, यद्वा, पॄ पालनपूरणयोः-कुषन्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२। उकारः। यद्वा पुर्+षद्लृ गतौ, यद्वा, शीङ् स्वप्ने षस स्वप्ने वा−ड, पृषोदरादिरूपम्। पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा-निरु० २।३। अग्रगामी। पूरयिता। परिपूर्णः। परमेश्वरः। मनुष्यः (उच्यते) कथ्यते ॥
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