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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
    177

    चतु॑ष्टयं युज्यते॒ संहि॑तान्तं॒ जानु॑भ्यामू॒र्ध्वं शि॑थि॒रं कब॑न्धम्। श्रोणी॒ यदू॒रू क उ॒ तज्ज॑जान॒ याभ्यां॒ कुसि॑न्धं॒ सुदृ॑ढं ब॒भूव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चतु॑ष्टयम् । यु॒ज्य॒ते॒ । संहि॑तऽअन्तम् । जानु॑ऽभ्याम् । ऊ॒र्ध्वम् । शि॒थि॒रम् । कब॑न्धम् । श्रोणी॒ इति॑ । यत् । ऊ॒रू इति॑ । क: । ऊं॒ इति॑ । तत् । ज॒जा॒न॒ । याभ्या॑म् । कृसि॑न्धम् । सुऽदृ॑ढम् । ब॒भूव॑ ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चतुष्टयं युज्यते संहितान्तं जानुभ्यामूर्ध्वं शिथिरं कबन्धम्। श्रोणी यदूरू क उ तज्जजान याभ्यां कुसिन्धं सुदृढं बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चतुष्टयम् । युज्यते । संहितऽअन्तम् । जानुऽभ्याम् । ऊर्ध्वम् । शिथिरम् । कबन्धम् । श्रोणी इति । यत् । ऊरू इति । क: । ऊं इति । तत् । जजान । याभ्याम् । कृसिन्धम् । सुऽदृढम् । बभूव ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (चतुष्टयम्) चार प्रकार से (संहितान्तम्) सटे हुए सिरोंवाला, (जानुभ्याम् ऊर्ध्वम्) दोनों घुटनों से ऊपर, (शिथिरम्) शिथिर [ढीला] (कबन्धम्) धड़ (युज्यते) जुड़ता है। (यत्) जो (श्रोणी) दोनों कूल्हे और (ऊरू) दोनों जाँघें हैं, (कः उ) किसने ही (तत्) उनको (जजान) उत्पन्न किया, (याभ्याम्) जिन दोनों के साथ (कुसिन्धम्) [चिपचिपा] धड़ (सुदृढम्) बड़ा दृढ़ (बभूव) हुआ है ॥३॥

    भावार्थ

    अब यह प्रश्न है कि चार अर्थात् दोनों कूल्हे और दोनों जाँघों पर जमे हुए जल वा रुधिर आदि रसों से संयुक्त इस ढीले-ढीले शरीर को अनेक नाडियों में कसकर किसने ऐसा दृढ़ बनाया है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(चतुष्टयम्) संख्याया अवयवे तयप्। पा० ५।२।४२। चतुर्-तयप्, रेफस्य विसर्गे सत्वे च कृते। ह्रस्वात्तादौ तद्धिते। पा० ८।३।१०१। इति षत्वम्। चतुरवयवयुक्तम् (युज्यते) (संहितान्तम्) संधृतप्रान्तम् (जानुभ्याम्) जङ्घोपरिभागाभ्यां सह (ऊर्ध्वम्) (शिथिरम्) अजिरशिशिरशिथिल०। उ० १।५३। श्रथ मोचने-किरच्, उपधाया इत्वम्, रेफस्य लोपः। अदृढम् (कबन्धम्) अ० ९।४।३। उदरं शरीरम् (श्रोणी) अ० २।३३।५। कटिप्रदेशौ (यत्) ये द्वे (ऊरू) अ० २।३३।५। जङ्घे (कः) प्रश्ने (उ) एव (तत्) ते द्वे (जजान) उत्पादयामास (याभ्याम्) (कुसिन्धम्) इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। कुस श्लेषणे-इन्, कित्+दधातेः-क, अलुक्समासः। श्लेषधारकं देहम् (सुदृढम्) (बभूव) ॥

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    विषय

    गुल्फौ-जानू

    पदार्थ

    १. (कस्मात्) = किस कारण से (नु) = अब (गुल्फौ) = गिट्टे (अधरौ अकृण्वन) = नीचे बनाये हैं और (पूरुषस्य) = पुरुष-शरीर के (अष्ठीवन्तौ उत्तरौ) = घुटने ऊपर बनाये गये हैं? २. क्योंकर जड़े-जाँ (निर्ऋत्य न्यदधुः) = अलग-अलग करके रक्खी गई है? (जानुनो: सन्धी क्वस्वित्) = घुटनों की सन्धियों को कहाँ रक्खा गया है? (कः उ तत् चिकेत) = कौन इसे निश्चय से जानता है?

    भावार्थ

    इस शरीर की रचना को पूरा-पूरा समझना कठिन है।

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    भाषार्थ

    (जानुभ्याम्, ऊर्ध्वम्) दो घुटनों से ऊपर की ओर (चतुष्टयम्) चार अवयवों वाला, तथा (संहितान्तम्) प्रान्तों में सन्धियों वाला (शिथिरम्) शिथिल अर्थात् लचकीला और नर्म (कबन्धम्) सिर के साथ बन्धन वाला। शरीर (युज्यते) जोड़ों द्वारा जड़ा हुआ है। (श्रोणी) दो कटियां और (यद्) जो (ऊरु) दो जङ्घाएं आदि हैं उन्हें (क, उ) किस ने (जजान) पैदा किया है (याभ्याम्) जिन द्वारा कि (कुसिन्धम्) शरीर (सुदृढम्) सुदृढ़ (बभूव) हुआ है।

    टिप्पणी

    [चतुष्टयम् = चार मुख्य अवयव हैं, (१) फेफड़े, (२) हृदय, (३) पेट, (४) आन्तें। संहितान्तम् = शरीर के चार प्रान्त भाग हैं, दो वे जहां बाहुओं के दो मूल जुड़े हुए हैं, और दो वे जहां दो श्रोणियां जुड़ी हुई हैं। कबन्धम्= इस शब्द का प्रसिद्ध अर्थ है “सिर से रहित धड़”। परन्तु मन्त्र में इस का अर्थ है “सिर सहित धड़”। क= “सिर” के साथ बन्धा हुआ, लगा हुआ, धढ़”। यथा “कन्धरा” है ग्रीवा, कं शिरः धारयतीति। इसी प्रकार कुसिन्ध का प्रसिद्ध अर्थ है, धड़, अर्थात् “कुत्सित गति वाला, बुरी हालत वाला१। कु (कुत्सित) + षिधु (गत्याम्)। परन्तु मन्त्र में इस का अर्थ है “पृथिवी पर गति करने वाला, चलने वाला शरीर”। कु= कुत्सित, तथा पृथिवी। “ऊरू” शब्द का अर्थ है धड़ के निचले भाग में लगे पादों और जङ्घाओं समेत दो पट्ट [Thighs], इस प्रकार मन्त्र में समग्र अवयवों सहित शरीर का वर्णन हुआ है।] [१. सिर के बिना धड़ किसी काम का नहीं।]

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    विषय

    पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।

    भावार्थ

    (चतुष्टयं) पूर्वोक्त दोनों जांघें और दोनों गोडे इन चारों को (संहितान्तम्) इनके सिरे खूब अच्छी प्रकार मिला मिला कर (युज्यते) जोड़े गये हैं और (जानुभ्याम्) टांगों के (ऊर्ध्वम्) ऊपर (कबन्धम्) कबन्ध=धड़ भाग (शिथिरम्) शिथिल रूप से रख दिया गया है। (श्रोणी) दो कूल्हे और (यत् ऊरू) ये दोनों जंघाएं (तत्) इनको (क उ जजान) किसने बताया ? (याभ्याम्) जिनके कारण (कुसिन्धम्) यह कुत्सित, दुर्गन्ध मल मूत्र बहाने वाला या विचित्र रूप से बन्धा हुआ, अथवा परस्पर संसक्त अथवा छोटी नाड़ियों से पूर्ण शरीर (सु-दृढम्) खूब मज़बूत (बभूव) हो गया है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘संहतन्त’ (च०) ‘सुधृते बभूव’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kena Suktam

    Meaning

    The four, two knees and two thighs, at the end of the joint above the thighs are joined to the four-part flexible trunk of the body. Who created the hips and the thighs with which the trunk is joined as it is so strong?

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    Translation

    Wherewith did they make man’s four-fold frame with ends connected and up abovē the knees, the yielding belly, hips and thighs ? And of the props whereby the trunk became firmly established. (kabandha = belly; Sroni = two hips; ūrū = two thighs; kusindham = props).

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    Translation

    The four limbs (two thighs and two legs) are united together with articulation joint’s and the chest and neck of the man fixed together. Who is that who forms the hips and thighs and is generator of those props whereby the trunk is firmly established.

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    Translation

    A fourfold frame is fixed with ends connected, and up above the knees a loose belly. The hips and thighs, who was their generator, those props whereby the trunk grew firmly stablished!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(चतुष्टयम्) संख्याया अवयवे तयप्। पा० ५।२।४२। चतुर्-तयप्, रेफस्य विसर्गे सत्वे च कृते। ह्रस्वात्तादौ तद्धिते। पा० ८।३।१०१। इति षत्वम्। चतुरवयवयुक्तम् (युज्यते) (संहितान्तम्) संधृतप्रान्तम् (जानुभ्याम्) जङ्घोपरिभागाभ्यां सह (ऊर्ध्वम्) (शिथिरम्) अजिरशिशिरशिथिल०। उ० १।५३। श्रथ मोचने-किरच्, उपधाया इत्वम्, रेफस्य लोपः। अदृढम् (कबन्धम्) अ० ९।४।३। उदरं शरीरम् (श्रोणी) अ० २।३३।५। कटिप्रदेशौ (यत्) ये द्वे (ऊरू) अ० २।३३।५। जङ्घे (कः) प्रश्ने (उ) एव (तत्) ते द्वे (जजान) उत्पादयामास (याभ्याम्) (कुसिन्धम्) इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। कुस श्लेषणे-इन्, कित्+दधातेः-क, अलुक्समासः। श्लेषधारकं देहम् (सुदृढम्) (बभूव) ॥

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