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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
    ऋषिः - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
    138

    प्रि॑याप्रि॒याणि॑ बहु॒ला स्वप्नं॑ संबाधत॒न्द्र्यः। आ॑न॒न्दानु॒ग्रो नन्दां॑श्च॒ कस्मा॑द्वहति॒ पूरु॑षः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रि॒य॒ऽअ॒प्रि॒याणि॑ । ब॒हु॒ला । स्वप्न॑म् । सं॒बा॒ध॒ऽत॒न्‍द्र्य᳡: । आ॒ऽन॒न्दान् । उ॒ग्र: । नन्दा॑न् । च॒ । कस्मा॑त् । व॒ह॒ति॒ । पुरु॑ष: ॥२.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रियाप्रियाणि बहुला स्वप्नं संबाधतन्द्र्यः। आनन्दानुग्रो नन्दांश्च कस्माद्वहति पूरुषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रियऽअप्रियाणि । बहुला । स्वप्नम् । संबाधऽतन्‍द्र्य: । आऽनन्दान् । उग्र: । नन्दान् । च । कस्मात् । वहति । पुरुष: ॥२.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (बहुला) बहुत से (प्रियाप्रियाणि) प्रिय और अप्रिय कर्मों, (स्वप्नम्) सोने, (संबाधतन्द्र्यः) बाधाओं और थकावटों, (आनन्दान्) आनन्दों, (च) और (नन्दान्) हर्षों को (उग्रः) प्रचण्ड (पुरुषः) मनुष्य (कस्मात्) किस [कारण] से (वहति) पाता है ॥९॥

    भावार्थ

    अब प्रश्न है कि भलाई-बुराई, सुख-दुःख आदि मनुष्य किस कारण से पाता है ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(प्रियाप्रियाणि) हिताहितानि कर्माणि (बहुला) बहूनि (स्वप्नम्) निद्राम् (संबाधतन्द्र्यः) बाधृ प्रतिघाते-घञ्। वङ्क्र्यादयश्च। उ० ४।६६। तदि मोहे−क्रिन्, ङीप्, यद्वा, तद्रि अवसादे मोहे च-इन्, ङीप्। द्वितीयास्थाने प्रथमा। प्रतिरोधान् आलस्यान् च (आनन्दान्) प्रमोदान् (उग्रः) प्रचण्डः (नन्दान्) हर्षान् (च) (कस्मात्) कारणात् (वहति) प्राप्नोति (पुरुषः) मनुष्यः ॥

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    विषय

    प्रियाप्रियाणि

    पदार्थ

    १. हे पुरुषो! विचारो कि (उग्रः पूरुषः) = तेजस्वी होता हुआ पुरुष (बहुला) = बहुत प्रकार के (प्रियाप्रियाणि) = प्रिय व अप्रिय भावों को, (स्वपम्) = स्वप्न को (संबाधतन्द्रयः) = बाधाओं [पीड़ाओं] व थकानों को (आनन्दान्) = आनन्दों को (च नन्दान्) = और समृद्धियों को (कस्मात् वहति) = किस कारण से प्राप्त करता है?

    भावार्थ

    किस देव की अधीनता में तेजस्वी-से-तेजस्वी पुरुष भी प्रिय व अप्रिय कर्मफलों को प्राप्त करता है।

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    भाषार्थ

    (बहुला= बहुलानि) बहुत अर्थात् नानाविध (प्रियाप्रियाणि) प्रिय और अप्रिय वस्तुओं को, (स्वप्नम्) बुरे-भले स्वप्नों को, (संबाधतन्द्र्यः) बाधाओं और आलस्य को, (आनन्दान्, नन्दान् च) आध्यात्मिक सुखों और सांसारिक सुखों को, (उग्रः पुरुषः) शक्तिशाली पुरुष (कस्मात्) किस हेतु से (वहति) प्राप्त करता या ढोता है।.

    टिप्पणी

    [वहति= ढोना, जैसे कि पशु मार को ढोता है। प्रापणे, प्राप्त करता है। प्रश्न यह है कि पुरुष है उग्र अर्थात् शक्तिसम्पन्न, तो भी वह अवांछित तथा अनभीष्ट वस्तुओं को किस हेतु से प्राप्त करता है? उत्तर है “कस्मात्” अर्थात् प्रजापति से कः वै प्रजापतिः (ऐत० ३।२१)। यद्यपि “स्मात्” के योग में “कः” किम्-सर्वनाम प्रतीत होता है, तो भी वैदिक प्रथानुसार “कः” असर्वनाम भी समझा जा सकता है। यथा “कस्मै देवाय हवि विधेम” (यजु० २४।१२) में “कस्मै” का अर्थ प्रजापतये किया जाता है। (यजु० २५।१२, महीधर) अभिप्राय यह है कि पुरुष उग्र होता हुआ भी, निजकर्म फल के कारण, कर्मफल दाता परमेश्वर से इन्हें भोग रहा है] सूक्त २ में प्रायः “कः, केन, कस्मात्” आादि प्रयोगों द्वारा प्रश्न और उत्तर दोनों जानने चाहिये। इसी भाव को दर्शाने के लिये मन्त्र (२०-२५) में प्रश्नों के उत्तर में ब्रह्म का कथन हुआ है]।

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    विषय

    पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! विचार करो कि (उग्रः) बलवान् होकर (पूरुषः) यह पुरुष (बहुला) बहुत प्रकार के (प्रिया प्रियाणि) प्रिय, चित्त को भले लगने वाले और अप्रिय, चित्त को बुरे लगने वाले भावों को, (स्वप्नम्) निद्रा (संबाध-तन्द्रयः) पीड़ा और थकान (आनन्दान्) आनन्दों और (नन्दांश्च) हर्षो को (कस्मात्) किस हेतु से या कहां से (वहति) प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘संबाधतन्द्रियः’ (च०) ‘पौरुषः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kena Suktam

    Meaning

    Whence, from whom, the many things pleasant and unpleasant, sleep and dream, oppression, depression and weariness, pleasures and joys, which the brilliant humanity bears as a burden, the bitter-sweet of life?

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    Translation

    Wherefrom does mighty man get numerous pleasant and unpleasant things - sleep, distress, fatigue, delights and enjoyments ?

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    Translation

    Whence does bring this mighty man both pleasant and pleasant things of various kinds, sleep, and alarm, fatigue, enjoyments and delights.

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    Translation

    How does a strong person acquire pleasant and unpleasant deeds, of varied sort, sleep, and alarm, fatigue, enjoyments and delights?

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(प्रियाप्रियाणि) हिताहितानि कर्माणि (बहुला) बहूनि (स्वप्नम्) निद्राम् (संबाधतन्द्र्यः) बाधृ प्रतिघाते-घञ्। वङ्क्र्यादयश्च। उ० ४।६६। तदि मोहे−क्रिन्, ङीप्, यद्वा, तद्रि अवसादे मोहे च-इन्, ङीप्। द्वितीयास्थाने प्रथमा। प्रतिरोधान् आलस्यान् च (आनन्दान्) प्रमोदान् (उग्रः) प्रचण्डः (नन्दान्) हर्षान् (च) (कस्मात्) कारणात् (वहति) प्राप्नोति (पुरुषः) मनुष्यः ॥

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