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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    ऋषिः - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
    97

    तद्वा अथ॑र्वणः॒ शिरो॑ देवको॒शः समु॑ब्जितः। तत्प्रा॒णो अ॒भि र॑क्षति॒ शिरो॒ अन्न॒मथो॒ मनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । वै । अथ॑र्वण: । शिर॑: । दे॒व॒ऽको॒श: । सम्ऽउ॑ब्जित: । तत् । प्रा॒ण: । अ॒भि । र॒क्ष॒ति॒ । शिर॑: । अन्न॑म् । अथो॒ इति॑ । मन॑: ॥२.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुब्जितः। तत्प्राणो अभि रक्षति शिरो अन्नमथो मनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । वै । अथर्वण: । शिर: । देवऽकोश: । सम्ऽउब्जित: । तत् । प्राण: । अभि । रक्षति । शिर: । अन्नम् । अथो इति । मन: ॥२.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (तत् वै) वही (शिरः) शिर (अथर्वणः) निश्चल परमात्मा के (देवकोशः) उत्तम गुणों का भण्डार [भाण्डागार] (समुब्जितः) ठीक-ठीक बना है। (तत्) उस (शिरः) शिर की (प्राणः) प्राण [जीवन वायु] (अभि) सब ओर से (रक्षति) रक्षा करता है, (अन्नम्) अन्न (अथो) और (मनः) मन [रक्षा करता है] ॥२७॥

    भावार्थ

    मनुष्य शिर के भीतर ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान लगाकर परमात्मा की सत्ता का सूक्ष्म विचार करता है। वह शिर प्राण, अन्न और मन द्वारा रक्षित रहता है ॥२७॥

    टिप्पणी

    २७−(तत्) (वै) एव (अथर्वणः) म० २६। निश्चलपरमेश्वरस्य (शिरः) मस्तकम् (देवकोशः) कुश श्लेषे-घञ्। दिव्यगुणानां भाण्डागारः (समुब्जितः) सम्यक् सरलीकृतः (तत्) प्राणः जीवनवायुः (अभि) सर्वतः (रक्षति) पाति (शिरः) (अन्नम्) (अथो) अपि च (मनः) ॥

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    विषय

    देवकोशः समुब्जितः

    पदार्थ

    १. (तत्) = तब जबकि अथर्वा मूर्धा व हृदय को सी लेता है, (वै) = निश्चय से (अथर्वण:) = इस अर्थवा का (शिर:) = मस्तिष्क (देवकोश:) = देवों का कोष बनता है। तब यह (सम् उब्जित:) = सम्यक् वशीभूत रहता है [keep under, check, subdue]। श्रद्धा के अभाव में मस्तिष्क व्यर्थ के तर्क करता हुआ जीवन को अप्रतिष्ठित-सा कर देता है। २. (तत्) = उस (शिर:) = मस्तिष्क को (अथो) = और (मन:) = मन को (प्राण:) = प्राण और (अन्नम्) = अन्न (अभिरक्षति) = सम्यक् रक्षित करते हैं, अर्थात् मस्तिष्क व मन के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है कि प्राणसाधना की जाए तथा सात्विक अन्न का सेवन हो।

     

    भावार्थ

    हम प्राणसाधना व सात्विक अन्न के सेवन द्वारा मन व मस्तिष्क को सुरक्षित करेंगे तो इन दोनों के समन्वय से हमारा मस्तिष्क देवकोश बनेगा-ज्ञान का भण्डार बनेगा। यह संयत रहेगा, व्यर्थ के तको से जीवन को अप्रतिष्ठित करनेवाला न होगा। श्रद्धा इसे वश में रक्खेगी।

     

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    भाषार्थ

    (वै) निश्चय से (तत्) वह (शिरः) सिर अर्थात् मस्तिष्क (अथर्वणः) अचल, कूटस्थ परमेश्वर का है, (देवकोशः) इन्द्रियों का खजाना है, (समुब्जितः) सिर की खोपड़ी में रखा हुआ है। (तत्) उस (शिर) सिर अर्थात् मस्तिष्क की (अभि रक्षति) रक्षा करता है (प्राणाः) प्राण (अन्नम) अन्न (अथो) और (मनः) मन।

    टिप्पणी

    [मस्तिष्क में स्थित सहस्रारचक्र में, परमेश्वर का स्पष्ट साक्षात्कार होता है, अतः मस्तिष्क को अथर्वा कहा है। मस्तिष्क में ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के घर हैं, अतः यह देवकोश है। खोपड़ी रूपी कोश के भीतर यह देवकोश रहता है, इसलिये इसे समुब्जितः कहा है, यथा "कोशे कोशः समुब्जितः" (अथर्व० ९।३।२०)। मस्तिष्क बहुमूल्यवान रत्न है, रत्नों को कोश अर्थात् पेटी में रख कर, पेटी को कमरे रूपी कोश में रखा जाता है। मस्तिष्क की रक्षा होती है प्राणायाम द्वारा, सात्विक अन्न द्वारा, तथा मनन अर्थात् विचार द्वारा अथवा प्राणमयकोश द्वारा, अन्नमयकोश द्वारा तथा मनोमयकोश द्वारा]।

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    विषय

    पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।

    भावार्थ

    (वा) अथवा (अथर्वणः) अथर्वा प्रजापति का बनाया हुआ (तत्) वह (शिरः) शिर ही (देव-कोशः) देव-कोश, देव=इन्द्रियों का मूल आवरण या निवासस्थान (सम्-उब्जितः) बना हुआ है। (तत्) उस (शिरः) शिर को (प्राणः) प्राण (अभिरक्षति) चारों ओर से रक्षा करता है। और (अन्नम् अथो मनः) अन्न और मन भी उसकी रक्षा करते हैं।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘प्राणोऽभिरक्षति श्रीम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kena Suktam

    Meaning

    That head, i.e., state of the mind and soul of the yogi, is the treasure seat of divinities perfectly and wholly suffused in the divine presence, and that state thus raised, prana, pure food and peace of mind, all protect and preserve in the state of peace beyond disturbance.

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    Translation

    That head, indeed, is the firmly-closed divine treasure-chest of the uninjuring Lord. The vital breath, the food and also the mind protect that head.

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    Translation

    This man’s head is the great casket of the mental tendencies and intellectual feats which has been made by the Great God. The Spirit, food and vital air protect that head.

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    Translation

    The head of the yogi is verily the well-guarded treasure of the organs. Vital air, food and noble thoughts protect that head.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(तत्) (वै) एव (अथर्वणः) म० २६। निश्चलपरमेश्वरस्य (शिरः) मस्तकम् (देवकोशः) कुश श्लेषे-घञ्। दिव्यगुणानां भाण्डागारः (समुब्जितः) सम्यक् सरलीकृतः (तत्) प्राणः जीवनवायुः (अभि) सर्वतः (रक्षति) पाति (शिरः) (अन्नम्) (अथो) अपि च (मनः) ॥

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