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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
    ऋषिः - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - जगती सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
    97

    को अ॑स्मि॒न्नापो॒ व्यदधात्विषू॒वृतः॑ पुरू॒वृतः॑ सिन्धु॒सृत्या॑य जा॒ताः। ती॒व्रा अ॑रु॒णा लोहि॑नीस्ताम्रधू॒म्रा ऊ॒र्ध्वा अवा॑चीः॒ पुरु॑षे ति॒रश्चीः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क: । अ॒स्मि॒न् । आप॑: । वि । अ॒द॒धा॒त् । वि॒षु॒ऽवृत॑: । पु॒रु॒:ऽवृत॑: । सि॒न्धु॒ऽसृत्या॑य । जा॒ता: । ती॒व्रा: । अ॒रु॒णा: । लोहि॑नी: । ता॒म्र॒ऽधू॒म्ना: । ऊ॒र्ध्वा: । अवा॑ची: । पुरु॑षे । ति॒रश्ची॑: ॥२.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क: । अस्मिन् । आप: । वि । अदधात् । विषुऽवृत: । पुरु:ऽवृत: । सिन्धुऽसृत्याय । जाता: । तीव्रा: । अरुणा: । लोहिनी: । ताम्रऽधूम्ना: । ऊर्ध्वा: । अवाची: । पुरुषे । तिरश्ची: ॥२.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 11
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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (कः) प्रजापति [परमेश्वर] ने (अस्मिन् पुरुषे) इस मनुष्य में (विषुवृतः) नाना प्रकार घूमनेवाले, (पुरुवृतः) बहुत घूमनेवाले, (सिन्धुसृत्याय) समुद्रसमान बहने के लिये (जाताः) उत्पन्न हुए, (तीव्राः) तीव्र [शीघ्रगामी], (अरुणाः) बेंगनी, (लोहिनीः) लाल वर्णवाले (ताम्रधूम्राः) ताँबे समान धूएँ के वर्णवाले, (ऊर्ध्वाः) ऊपर जानेवाले, (अवाचीः) नीचे की ओर चलनेवाले और (तिरश्चीः) तिरछे बहनेवाले (आपः=अपः) जलों [रुधिरधाराओं] को (वि अदधात्) बनाया है ॥११॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने मनुष्यशरीर में रुधिर के सञ्चार के लिये नाना वर्ण अनेक स्थूल सूक्ष्म नाड़ियाँ बनाई हैं, जिसके कारण से मनुष्य अनेक चेष्टायें करके अपने मनोरथ सिद्ध करता है ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(कः) म० ५। कर्ता प्रजापतिः (अस्मिन्) (आपः) अपः। जलानि रुधिररूपाणि (व्यदधात्) कृतवान् (विषुवृतः) नानारूपेण वर्तमानाः (पुरुवृतः) बहुवर्तनशीलाः (सिन्धुसृत्याय) सृ गतौ-क्यप्, तुक्। समुद्रवद् गमनाय (जाताः) उत्पन्नाः (तीव्राः) शीघ्रगतीः (अरुणाः) कृष्णमिश्रितरक्तवर्णाः (लोहिनीः) वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः। पा० ४।१।३९। लोहित−ङीप्, तस्य नश्च। रक्तवर्णाः (ताम्रधूम्राः) ताम्रधूम्रवर्णाः (ऊर्ध्वाः) उपरिगतीः (अवाचीः) अधोगतिशीलाः (पुरुषे) मनुष्ये (तिरश्चीः) तिर्यग्गतियुक्ताः ॥

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    विषय

    रुधिर' रूप अद्भुत जल

    पदार्थ

    १. (अस्मिन् पुरुषे) = इस पुरुष-शरीर में (आपः) = रुधिररूप द्रवों को (कः व्यदधात्) = किसने बनाया है, जोकि (विषुवृत:) = नाना प्रकार से देह में घूमते हैं, (पुरूवतः) = [पू पालनपूरणयोः] पालन व पूरण करने के दृष्टिकोण से घूमनेवाले, (सिन्धुसत्याय जाता:) = नाड़ीरूप सिन्धुओं में गति करने के योग्य हो गये हैं। २. ये रुधिरद्रव (तीव्रा:) = तीव्र गतिवाले (अरुणा:) = लाल रंगवाले (लोहिनी:) = लोह धातु को साथ ले-जानेवाले, (ताम्रधूम्रा:) = तांबे के धुएँ के समान रंगवाले, (ऊर्ध्वा अवाची: तिरश्ची:) = ऊपर, नीचे व तिरछे चलनेवाले हैं।

    भावार्थ

    नाड़ियों में प्रवाहित होनेवाले इस अद्भुत रुधिर का निर्माण किसने किया है?

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    भाषार्थ

    (कः) किस ने (अस्मिन् पुरुषे) इस पुरुष में (आपः) जल या द्रव तत्त्व (व्यदधात्) विधि पूर्वक स्थापित किये हैं, जो कि (विषूवृतः पुरूवृतः) शरीर में व्याप्त है, तथा परिमाण में बहुत हैं, जो (सिन्धुसृत्याय) हृदयरूपी समुद्र से तथा उस में सरण करने के लिये (जाताः) उत्पन्न हुए हैं। जो (तीव्राः) स्वाद में तीव्र, (अरुणाः) फीके लाल अर्थात् अल्पलाल, (लोहिनीः) लाल, (ताम्रधूम्राः) ताम्बे के धूम अर्थात् वाष्पसदृश नीले हैं, (ऊर्ध्वाः) जो ऊर्ध्व की ओर गति करते, (अवाचीः) नीचे की ओर गति करते, (तिरश्चीः) पार्श्वों की ओर गति करते हैं।

    टिप्पणी

    [आपः =रक्तरूपी जल जो शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में व्याप्त है, आप्लृ व्याप्तौ। विषूवृतः = विष्लृ व्याप्तौ + वृतु वर्तने। सिन्धु सृत्याय = सिन्धु का अभिप्राय है हृदय-समुद्र, जिस से रक्त स्यन्दन करता है, तथा जिस की ओर रक्त स्यन्दन करता है। मलिन रक्त हृदय के वाम कोष्ठ में स्यन्दन करता है, और शुद्ध रक्त हृदय से शरीर की ओर स्यन्दन करता है। अरुणाः= अनीमिक अवस्था में रक्त कम लाल होता है, कम आभा वाला होता है, अरुणाः= आरोचनाः (निरुक्त ५।४।२१)। लोहिनीः= अधिक लाल जिस में कि लोहे की मात्रा पर्याप्त होती है। ताम्रधूम्राः = ताम्बा लाल होता हैं, परन्तु आग पर रखने से इससे जो धूम्र निकलता है वह नीला होता है। Veins अर्थात् सिराओं का खून नीला होता है, और Arteries अर्थात् धमनियों का खून लाला होता है। रक्त “ऊर्ध्व” अर्थात् सिर की ओर “अवाचीः” नीचे शरीर की ओर, तथा “तिरश्चीः” पार्श्वो की ओर गति करता है। कः= प्रश्नार्थक तथा प्रजापत्यर्थक। प्रश्न – “कः” किस ने आपः स्थापित किये हैं, उत्तर- “कः” प्रजापति ने स्थापित किये हैं]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kena Suktam

    Meaning

    Who created and placed in humanity the waters, blood and other liquids, produced within, flowing and circulating in streams all round in abundance, intense, ruddy, dark red, copper red, turbid, upwards, downwards, transverse, in a circuit?

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    Translation

    Who has created in this man the waters moving in diverse directions, moving every-where, created for flowing like rivers, quick, ruddy, red, copper-hued and smoke-coloured, running upward, downward and crosswise.

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    Translation

    Who does form in men the blood turning in all direction (i.e. having circulation throughout body and limbs) to flow in the veins which are red, hasty, copper-hued and purple running all the ways upward and downward in men’s body?

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    Translation

    God hath stored in man floods of blood, which turn in all directions, move in diverse organs, and flow in arteries. They are hasty, red, purple, and copper-hued, running all ways, upward, downward and oblique.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(कः) म० ५। कर्ता प्रजापतिः (अस्मिन्) (आपः) अपः। जलानि रुधिररूपाणि (व्यदधात्) कृतवान् (विषुवृतः) नानारूपेण वर्तमानाः (पुरुवृतः) बहुवर्तनशीलाः (सिन्धुसृत्याय) सृ गतौ-क्यप्, तुक्। समुद्रवद् गमनाय (जाताः) उत्पन्नाः (तीव्राः) शीघ्रगतीः (अरुणाः) कृष्णमिश्रितरक्तवर्णाः (लोहिनीः) वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः। पा० ४।१।३९। लोहित−ङीप्, तस्य नश्च। रक्तवर्णाः (ताम्रधूम्राः) ताम्रधूम्रवर्णाः (ऊर्ध्वाः) उपरिगतीः (अवाचीः) अधोगतिशीलाः (पुरुषे) मनुष्ये (तिरश्चीः) तिर्यग्गतियुक्ताः ॥

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