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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
    ऋषिः - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
    72

    ब्रह्म॑ दे॒वाँ अनु॑ क्षियति॒ ब्रह्म॒ दैव॑जनी॒र्विशः॑। ब्रह्मे॒दम॒न्यन्नक्ष॑त्रं॒ ब्रह्म॒ सत्क्ष॒त्रमु॑च्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑ । दे॒वान् । अनु॑ । क्षि॒य॒ति॒ । ब्रह्म॑ । दैव॑ऽजनी: । विश॑: । ब्रह्म॑ । इ॒दम् । अ॒न्यत् । नक्ष॑त्रम् । ब्रह्म॑ । सत् । क्ष॒त्रम् । उ॒च्य॒ते॒ ॥२.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्म देवाँ अनु क्षियति ब्रह्म दैवजनीर्विशः। ब्रह्मेदमन्यन्नक्षत्रं ब्रह्म सत्क्षत्रमुच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म । देवान् । अनु । क्षियति । ब्रह्म । दैवऽजनी: । विश: । ब्रह्म । इदम् । अन्यत् । नक्षत्रम् । ब्रह्म । सत् । क्षत्रम् । उच्यते ॥२.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 23
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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    वह [मनुष्य] (ब्रह्म=ब्रह्मणा) ब्रह्म [परमेश्वर] द्वारा (देवान्) स्तुतियोग्य गुणों, और (ब्रह्म) ब्रह्म द्वारा (दैवजनीः) दैव [पूर्वजन्म के अर्जित कर्म] से उत्पन्न (विशः अनु) मनुष्यों में (क्षियति) रहता है। (ब्रह्म) ब्रह्म द्वारा (इदम्) यह (सत्) सत्य (क्षत्रम्) राज्य और (ब्रह्म) ब्रह्म द्वारा (अन्यत्) दूसरा [भिन्न] (नक्षत्रम्) अराज्य (उच्यते) बताया जाता है ॥२३॥

    भावार्थ

    यह मन्त्र का उत्तर है। मनुष्य परमेश्वर से वेद द्वारा उत्तम गुणों उत्तम लोगों को पावे और वेद द्वारा ही धर्म्म राज्य की विधि और अधर्म्म कुराज्य का निषेध सीखे ॥२३॥

    टिप्पणी

    २३−(ब्रह्म) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः सुः। ब्रह्मणा। परमेश्वरद्वारा। अन्यत् पूर्ववत्−मन्त्र २२ ॥

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    विषय

    न-क्षत्रं-सत् क्षत्रम्

    पदार्थ

    १. (केन) = किस सामर्थ्य से मनुष्य (देवान् अनु क्षियति) = देवों के साथ निवास करता है दिव्य गुणों को अपने में बढ़ानेवाला बनता है ? (केन) = किस सामर्थ्य से (दैवजनी: विश:) = प्रभु से उत्पादित प्रजाओं के साथ अनुकूलता से निवास कर पाता है ? (केन अन्यत्) = किससे भिन्न रहित होकर (इदम्) = यह (न-क्षत्रम्) = क्षतों से अपना त्राण करनेवाला नहीं होता, और (केन = -किसके द्वारा (सत् क्षत्रम्) = उत्तम बलस्वरूप [क्षत्रों से अपना त्राण करनेवाला] (उच्यते) = कहा जाता है। २. (ब्रह्म देवान् अनु क्षियति) = ज्ञान से यह पुरुष देवों के साथ निवास करता है। (ब्रह्म दैवजनी: विशः) [अनुक्षियति] = ज्ञान द्वारा देव से उत्पादित प्रजाओं के साथ अनुकूलता से निवास करता है। (ब्रह्म अन्यत्) = ब्रह्म से रहित (इदं नक्षत्रम्) = यह निर्वीर्य है। (ब्रह्म) = ज्ञान ही (सत् क्षत्रम्) = उत्तम बल (उच्यते) = कहा जाता है।

    भावार्थ

    ज्ञान से दिव्यगुणों का विकास होता है। ज्ञान से मनुष्य सब प्रजाओं के साथ अनुकूलतापूर्वक निवास करता है। ज्ञानशून्यता ही निर्वीर्यता है। ज्ञान ही उत्कृष्ट बल है।

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    भाषार्थ

    (ब्रह्म देवान् अनुक्षियति) ब्रह्म देवकोटि के मनुष्यों में निरन्तर निवास करता है, (ब्रह्म दैवजनीः विशः) ब्रह्म "देवों से जनित सन्तानों में" निरन्तर निवास करता है। (ब्रह्म इदम् अन्यत्) देवों और दैवजनी विशों से भिन्न (इदम्) इस (नक्षत्रम् = नक्ष + त्रम्) अभ्यागतों तथा अतिथियों के पालक में ब्रह्म निरन्तर निवास करता है, (ब्रह्म सत् क्षत्रम् उच्यते) ब्रह्म वास्तविक "क्षत्र" अर्थात् क्षतों से त्राण करने वाला कहा जाता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २२ में देव आदि में ब्रह्म के निरन्तर निवास करने के कारणों अर्थात् हेतुओं का कथन किया है और मन्त्र २३ में निरन्तर निवास को ही सम्पुष्ट किया है]।

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    विषय

    पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।

    भावार्थ

    (ब्रह्म देवान् अनुक्षियति) ब्रह्मशक्ति से यह पुरुष (देवान्) विद्वानों के बीच में या इन्द्रियों और वाणी के बीच में आत्मा (अनुक्षियति) निवास करता है। (ब्रह्म) ब्रह्मशक्ति से ही (देव-जनीः) ईश्वर से उत्पादित चर, अचर प्रजाओं में या उप-प्राणों में भी यह पुरुष, आत्मा निवास करता है (ब्रह्म अन्यत्) ब्रह्मशक्ति से अतिरिक्त (इदम्) यह सब (नक्षत्रम्) ‘नक्षत्र’=निर्वीय है और (ब्रह्म सत्) ब्रह्म-शक्ति से युक्त ही यह सब (क्षत्रम् उच्यते) ‘क्षत्र’=बलयुक्त चेतन कहा जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kena Suktam

    Meaning

    Purusha blesses the divine hearts of humaity and divine powers of nature with its immanence and knowledge. Purusha blesses the children of divinity by virtue of faith and immanence. The order is called real by virtue of the Presence in consciousness, and the other is no-order because of no-presence in the consciousness.

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    Translation

    By knowledge he dwells with the enlightened ones, and by knowledge with the people of godly nature. By knowledge this other one is called the non-rulling power and by - knowledge the real ruling power.

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    Translation

    Through the power of Supreme Lord the man brings under his control marvelous powers and through the power of Supreme Lord he cantacts the celestial bodies. Through Brahm this other body is called star and through him this Present world is powerful.

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    Translation

    Through God’s grace doth man control the forces of Nature. Through God’s grace doth man make animate and inanimate creation subservient to him. Bereft of His grace man is powerless. Equipped with it, he is called full of strength and consciousness.

    Footnote

    It refers to God’s glory.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(ब्रह्म) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः सुः। ब्रह्मणा। परमेश्वरद्वारा। अन्यत् पूर्ववत्−मन्त्र २२ ॥

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