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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नारायणः देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः छन्दः - जगती सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
    121

    कः स॒प्त खानि॒ वि त॑तर्द शी॒र्षणि॒ कर्णा॑वि॒मौ नासि॑के॒ चक्ष॑णी॒ मुख॑म्। येषां॑ पुरु॒त्रा वि॑ज॒यस्य॑ म॒ह्मनि॒ चतु॑ष्पादो द्वि॒पदो॑ यन्ति॒ याम॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क: । स॒प्त । खानि॑ । वि । त॒त॒र्द॒ । शी॒र्षणि॑ । कर्णौ॑ । इ॒मौ । नासि॑के॒ इति॑ । चक्ष॑णी॒ इति॑ । मुख॑म् । येषा॑म् । पु॒रु॒ऽत्रा । वि॒ऽज॒यस्य॑ । म॒ह्यनि॑ । चतु॑:ऽपाद: । द्वि॒ऽपद॑: । यन्ति॑ । याम॑म् ॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कः सप्त खानि वि ततर्द शीर्षणि कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्। येषां पुरुत्रा विजयस्य मह्मनि चतुष्पादो द्विपदो यन्ति यामम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क: । सप्त । खानि । वि । ततर्द । शीर्षणि । कर्णौ । इमौ । नासिके इति । चक्षणी इति । मुखम् । येषाम् । पुरुऽत्रा । विऽजयस्य । मह्यनि । चतु:ऽपाद: । द्विऽपद: । यन्ति । यामम् ॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (कः) कर्त्ता [परमेश्वर] ने [मनुष्य के] (शीर्षणि) मस्तक में (सप्त) सात (खानि) गोलक (वि ततर्द) खोदे, (इमौ कर्णौ) यह दोनों कान, (नासिके) दोनों नथने, (चक्षणी) दोनों आँखें और (मुखम्) एक मुख। (येषाम्) जिनके (विजयस्य) विजय की (मह्मनि) महिमा में (चतुष्पादः) चौपाये और (द्विपदः) दोपाये जीव (पुरुत्रा) अनेक प्रकार से (यामम्) मार्ग (यन्ति) चलते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    कर्ता जगदीश्वर ने मस्तक के सातों गोलक अमूल्य पदार्थ बनाये हैं। जो प्राणी जितेन्द्रिय होकर इनको वेदविहित कर्मों में लगाते हैं, वे सुखी होते हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(कः) म० ५। कर्ता। जगदीश्वरः (सप्त) (खानि) म० १। छिद्राणि (वि ततर्द) तर्द हिंसायाम्। विदारितवान् (शीर्षणि) शिरसि (कर्णौ) (इमौ) (नासिके) नासाछिद्रे (चक्षणी) अर्तिसृधृ०। उ० २।१०२। चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि दर्शने च-अनि। चक्षुषी (मुखम्) (येषाम्) (पुरुत्रा) बहुविधम् (विजयस्य) (मह्मनि) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। मह पूजायाम्−मनिन्। महत्त्वे (चतुष्पादः) गवाश्वादयः पशवः (द्विपदः) पक्षिमनुष्यादयः (यन्ति) गच्छन्ति (यामम्) अर्तिस्तुसुहुसृधृ०। उ० १।१४०। या प्रापणे−मन्। मार्गम् ॥

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    विषय

    सप्तखानि

    पदार्थ

    १.(क:) = किसने (शीर्षणि) = सिर में (सप्त खानि विततर्द) = सात इन्द्रिय-गोलकों को खोदा है बनाया है। (इमौ कर्णौं) = इन दोनों कानों को, (नासिके) = दोनों नासिका-छिद्रों को (चक्षणी) = दोनों आँखों को और (मुखम्) = मुख को किसने बनाया है? २. (येषाम्) = जिन इन्द्रिय-गोलकों की (विजयस्य मह्यनि) = विजय की महिमा में उनके स्वस्थ रहने पर ही (चतुष्पादः द्विपदः) = चौपाये और दोपाये-पशु व मनुष्य सभी प्राणी (पुरुत्रा) = अनेक प्रकार से (यामं यन्ति) = मार्ग पर चलते हैं|

    भावार्थ

    प्रभु ने किस प्रकार इन दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँख व मुखरूप अद्भुत सात इन्द्रिय-गोलकों को बनाया है। इनकी विजय की महिमा में ही सब प्राणी जीवन-मार्ग में आगे बढ़ते हैं।

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    भाषार्थ

    (कः) किस ने (शीर्षणि) सिर में (सप्त) सात (खानि) गढ़े [इन्द्रियां] (विततर्द) काटे हैं, (कर्णौ इमौ) ये दो कान, (नासिके) दो नाक-छिद्र, (चक्षणी) दो आंखें, (मुखम्) और मुख। (येषाम्) जिन इन्द्रियों की (विजयस्य मह्मनि) विजय१ की महिमा पर (चतुष्पादः, द्विपदः) चौपाए और दोपाए (पुरुत्रा) विविध स्थानों में (यामम् यन्ति) मार्गों पर जाते हैं।

    टिप्पणी

    [१. इन्द्रियों द्वारा दर्शाये मार्गों पर चौपाए तथा दोपाए चलते हैं, जैसे कि राजा द्वारा दर्शाये मार्गों पर प्रजाएं चलती है। इसलिये इन्द्रियों ने मानो इन प्राणियों पर विजय पाया हुआ है।]

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    विषय

    पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।

    भावार्थ

    (कः) कौन देव (शीर्षाणि) शिर भाग में (सप्त खानि) सात इन्द्रियों के छिद्रों को (वि ततर्द) विशेष रूप से गढ़ कर बनाता है ? और कौन (इमौ कर्णौ) इन दो कानों, (नासिके) इन दो कान के छिद्रों और (चक्षणी) इन दो आखों और (मुखं) इस मुख को किसने बनाया (येषां) जिनके (विजयस्य मह्मनि) विजय की महिमा=महान् सामर्थ्य में (पुरुत्रा) बहुत से (चतुष्पदः) चौपाये और (द्विपदः) पक्षिगण और दोपाये मनुष्य भी (यामम्) अपना जीवन-मार्ग (यन्ति) तय करते हैं।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘चक्षणि नासिके मुखम्’ (तृ०) ‘विजयस्य महमनि’ इति पैप्प० सं०। ‘यामन्’ इति क्वचित् पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kena Suktam

    Meaning

    Who broke open the seven apertures of senses in his head: these two ears, two nostrils, two eyes and one mouth, by virtue of whose great power and faculty men as well as animals go their own ways in their daily business? Answer to questions from mantras 1 to 6: Kah, the Lord Supreme. In fact, the answer is inbuilt in each mantra itself. Reason? ‘Kah’ means both ‘who’ and ‘Lord Supreme’.

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    Translation

    Who pierced seven orifices in his head - these two ears, two nostrils, two eyes and the mouth ? In whose multiple grandeur, the quadrupeds and the bipeds move on the path of victory ? ( khāni= orifice; Sirsa = head; karņa= ear; nāsikā = nose; cakşaņī = eye; mukha = mouth; dvipada = biped; catuspāda = quadruped). `

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    Translation

    Who does make seven holes in the head? Who does make these ears, these nostrils, eyes and mouth through the surbassing and everywhere present power of which bipeds and quadrupeds tread the path of their life?

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    Translation

    God pierced the seven openings in the head. He made these ears, these nostrils, eyes and mouth, through whose surpassing might in various forms, bipeds and quadrupeds complete their journey of life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(कः) म० ५। कर्ता। जगदीश्वरः (सप्त) (खानि) म० १। छिद्राणि (वि ततर्द) तर्द हिंसायाम्। विदारितवान् (शीर्षणि) शिरसि (कर्णौ) (इमौ) (नासिके) नासाछिद्रे (चक्षणी) अर्तिसृधृ०। उ० २।१०२। चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि दर्शने च-अनि। चक्षुषी (मुखम्) (येषाम्) (पुरुत्रा) बहुविधम् (विजयस्य) (मह्मनि) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। मह पूजायाम्−मनिन्। महत्त्वे (चतुष्पादः) गवाश्वादयः पशवः (द्विपदः) पक्षिमनुष्यादयः (यन्ति) गच्छन्ति (यामम्) अर्तिस्तुसुहुसृधृ०। उ० १।१४०। या प्रापणे−मन्। मार्गम् ॥

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