अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
ऋषिः - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
132
केनापो॒ अन्व॑तनुत॒ केना॑हरकरोद्रु॒चे। उ॒षसं॒ केनान्वै॑न्द्ध॒ केन॑ सायंभ॒वं द॑दे ॥
स्वर सहित पद पाठकेन॑ । आप॑: । अनु॑ । अ॒त॒नु॒त॒ । केन॑ । अह॑: । अ॒क॒रो॒त् । रु॒चे । उ॒षस॑म् । केन॑ । अनु॑ । ऐ॒न्ध्द॒ । केन॑ । सा॒य॒म्ऽभ॒वम् । द॒दे॒ ॥२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
केनापो अन्वतनुत केनाहरकरोद्रुचे। उषसं केनान्वैन्द्ध केन सायंभवं ददे ॥
स्वर रहित पद पाठकेन । आप: । अनु । अतनुत । केन । अह: । अकरोत् । रुचे । उषसम् । केन । अनु । ऐन्ध्द । केन । सायम्ऽभवम् । ददे ॥२.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(केन) किस [सामर्थ्य] से उस [परमेश्वर] ने (आपः) जल को (अनु) लगातार (अतनुत) फैलाया है, (केन) जिस [सामर्थ्य] से (अहः) दिन (रुचे) चमकने के लिये (अकरोत्) बनाया है। (केन) किस [सामर्थ्य] से उसने (उषसम्) प्रभात को (अनु) लगातार (ऐन्द्ध) चमकाया है, (केन) किस [सामर्थ्य] से उसने (सायंभवम्) सायंकाल की सत्ता को (ददे) दिया है ॥१६॥
भावार्थ
मनुष्य को जानना चाहिये कि परमेश्वर ने किस सामर्थ्य से यह सृष्टि रची है ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(केन) सामर्थ्येन (आपः) अपः। जलानि (अनु) निरन्तरम् (अतनुत) विस्तारितवान् (केन) (अहः) दिनम् (अकरोत्) अरचयत् (रुचे) दीप्तये (उषसम्) प्रभातवेलाम् (केन) (अनु) अनुक्रमेण (ऐन्द्ध) ञिइन्धी दीप्तौ-लङ्, अन्तर्गतण्यर्थः। प्रदीपितवान् (केन) (सायंभवम्) सायंकालसत्ताम् (ददे) दत्तवान् ॥
विषय
आपः-अहः
पदार्थ
१.(केन) = किससे (आप:) = ये जल अथवा शरीरस्थ वीर्यकण (अन्वतनुत) = अनुकूलता से विस्तृत किये गये हैं? (केन) = किसने (रुचे) = प्रकाश के लिए (अहः) = दिन व सूर्य को (अकरोत्) = बनाया है? (केन) = किसने (उषसम्) = उषाकाल को (अन्वन्द्ध) = पुरुष के अनुकूल दीस किया है और (केन) = किसने (सायंभवं ददे) = सायंकाल को दिया है?
भावार्थ
किस अनुपम देव ने 'जलों, दिनों, उषाओं व सायंकालों का निर्माण किया है?
भाषार्थ
(केन) किस कारण (आपः) सामुद्रिक जलों को (अनु अतनुत) लगातार फैलाया है, (केन) किस कारण (रुचे) दीप्ति के लिये (अहः) दिन को (अकरोत्) रचा है। (केन) किस कारण (उषसम्) उषा को (अनु ऐन्द्ध) लगातार प्रदीप्त किया है, (केन) किस कारण (सायंभवम्) सायं काल का होना (ददे) प्रदान किया है।
टिप्पणी
[मन्त्र के द्वितीय पाद में दिन की रचना का कारण कह दिया है कि “रुचे” दीप्ति के लिये। इसी प्रकार अवशिष्ट रचनाओं के प्रयोजनों का ऊहापोह स्वयं करना चाहिये। सम्भवतः सामुद्रिक जलों को फैलाया है सामुद्रिक जीवों के जीवनार्थ तथा वर्षा के लिये उषा तथा सायंकाल हैं, दोनों कालों में ध्यान या सन्ध्या के लिये। केन= केन हेतुना, कारणेन। अथवा “दीप्ति के लिये दिन को रचा है" ताकि प्राणी काम कर सकें]।
विषय
पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।
भावार्थ
(आपः) ये जल (केन) किस के सामर्थ्य से (अनु अतनुत) सर्वत्र फैले हैं (केन) किसने (रुचे) प्रकाश के लिये (अहः) सूर्य को (अकरोत्) बनाया। (केन) किसने (उषसम्) उषा काल को (अनु-ऐन्ध) पुरुष के अनुकूल प्रकाशित किया और (केन) किसने (सायं भवम्) सायंकाल को बनाया।
टिप्पणी
(प्र०) ‘केना पोऽन्व’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kena Suktam
Meaning
By whom were the oceans of water created and expanded? Who created the day for light? By whom was the dawn lighted? By whom the fact of evening was created? Answer: Kah.
Translation
With what did he spread the waters around ? With what did he make the day so shining ? With what did he enkindle the dawn ? With what did he grant the coming of the evening ?
Translation
Through whom these waters spread out? by whom the sun is made? By whom the dawn has been illuminated? through whom the evening was beought into being?
Translation
Who has spread the waters out? Who has made the day to shine? Who has enkindled the Dawn? Who has given the gift of even-tide?
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(केन) सामर्थ्येन (आपः) अपः। जलानि (अनु) निरन्तरम् (अतनुत) विस्तारितवान् (केन) (अहः) दिनम् (अकरोत्) अरचयत् (रुचे) दीप्तये (उषसम्) प्रभातवेलाम् (केन) (अनु) अनुक्रमेण (ऐन्द्ध) ञिइन्धी दीप्तौ-लङ्, अन्तर्गतण्यर्थः। प्रदीपितवान् (केन) (सायंभवम्) सायंकालसत्ताम् (ददे) दत्तवान् ॥
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