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अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 20
गावः॑ सन्तु प्र॒जाः स॒न्त्वथो॑ अस्तु तनूब॒लम्। तत्सर्व॒मनु॑ मन्यन्तां दे॒वा ऋ॑षभदा॒यिने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठगाव॑: । स॒न्तु॒ । प्र॒ऽजा: । स॒न्तु॒ । अथो॒ इति॑ । अ॒स्तु॒ । त॒नू॒ऽब॒लम् । तत् । सर्व॑म् । अनु॑ । म॒न्य॒न्ता॒म् । दे॒वा: । ऋ॒ष॒भ॒ऽदा॒यि॑ने ॥४.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
गावः सन्तु प्रजाः सन्त्वथो अस्तु तनूबलम्। तत्सर्वमनु मन्यन्तां देवा ऋषभदायिने ॥
स्वर रहित पद पाठगाव: । सन्तु । प्रऽजा: । सन्तु । अथो इति । अस्तु । तनूऽबलम् । तत् । सर्वम् । अनु । मन्यन्ताम् । देवा: । ऋषभऽदायिने ॥४.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 20
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( ऋषभदायिने ) = सर्वदर्शक परमात्मा के ज्ञान के देनेवाले के लिए ( गावः सन्तु ) = विद्याएँ होवें ( प्रजाः सन्तु ) = पुत्र, पौत्रादि प्रजाएँ होवें । ( अथो ) = और भी ( तनू बलम् ) = शरीर बल ( अस्तु ) = होवे ( देवा: ) = विद्वान् लोग ( तत्सर्वम् ) = वे सब वस्तुएँ ( अनुमन्यन्ताम् ) = स्वीकार करें ।
भावार्थ -
भावार्थ = जो ब्रह्मचारी महात्मा लोग परमात्मा का वेद द्वारा उपदेश करते हैं उनके स्थानों में वेद विद्याओं का प्रचार और पुत्र-पौत्र तथा शिष्यादि वर्ग और इन उपदेशक महानुभावों का शारीरिक बल भी अवश्य होना चाहिये। संसार के बुद्धिमान् विद्वानों का कर्तव्य है कि ऐसे वेद द्वारा ब्रह्मज्ञान का उपदेश करनेवाले महानुभावों के लिए सब उत्तम पदार्थ प्राप्त करावें । जिससे किसी बात की न्यूनता न होकर वेदों का तथा ईश्वर- भक्ति का प्रचार सदा होता रहे ।
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