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अथर्ववेद > काण्ड 10 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 26
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - द्व्यनुष्टुब्गर्भानुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    इ॒यं क॑ल्या॒ण्यजरा॒ मर्त्य॑स्या॒मृता॑ गृ॒हे। यस्मै॑ कृ॒ता शये॒ स यश्च॒कार॑ ज॒जार॒ सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । क॒ल्या॒णी । अ॒जरा॑ । मर्त्य॑स्य । अ॒मृता॑ । गृ॒हे । यस्मै॑ । कृ॒ता । शये॑ । स: । य: । च॒कार॑ । ज॒जार॑ । स: ॥८.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं कल्याण्यजरा मर्त्यस्यामृता गृहे। यस्मै कृता शये स यश्चकार जजार सः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । कल्याणी । अजरा । मर्त्यस्य । अमृता । गृहे । यस्मै । कृता । शये । स: । य: । चकार । जजार । स: ॥८.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 26

    पदार्थ -

    शब्दार्थ = ( इयं कल्याणी ) = यह कल्याण करनेवाली देवता परमात्मा  ( अजरा ) = जरा रहित  ( अमृता ) = अमर है ।  ( मर्त्यस्य गृहे ) = मर्त्य के हृदय रूपी घर में निवास करता है ।  ( यस्मै ) = जिसके लिए  ( कृता ) = कार्य करता है  ( सः चकार ) = वह कार्य करने में समर्थ होता है और  ( यः शये ) = जो सोता है  ( सः जजार ) = वह जीर्ण हो जाता है ।

    भावार्थ -

    भावार्थ = परमात्मदेव सदा अजर-अमर हैं सबका कल्याण करनेवाले हैं वे मरणधर्मा मनुष्य के हृदय रूपी घर में निवास करते हैं जिसके ऊपर इस प्रभु की कृपा होती है वह कृतकार्य और यशस्वी होता है, परन्तु जो सोता है अर्थात् परमात्मा के ध्यान और भक्ति आदि साधनों से विमुख होता है वह शीघ्र जीर्ण हो कर नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है ।

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