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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त

    वि न॒ इन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः। अ॑ध॒मं ग॑मया॒ तमो॒ यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । न॒: । इ॒न्द्र॒: । मृध॑: । ज॒हि॒ । नी॒चा । य॒च्छ॒ । पृ॒त॒न्य॒त: । अ॒ध॒मम् । ग॒म॒य॒ । तम॑: । य: । अ॒स्मान् । अ॒भि॒ऽदास॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि न इन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः। अधमं गमया तमो यो अस्माँ अभिदासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । न: । इन्द्र: । मृध: । जहि । नीचा । यच्छ । पृतन्यत: । अधमम् । गमय । तम: । य: । अस्मान् । अभिऽदासति ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 21; मन्त्र » 2

    भावार्थ -

    हे ( इन्द्र ) राजन् ! ( नः ) हमारे ( मृधः ) संग्रामकारी शत्रुओं को ( विजहि ) विनाश कर और ( पृतन्यतः ) सेना लेकर चढ़ाई करने वाले, या सेना बटोरना चाहने वाले ( नीचा ) नीच पुरुषों को ( यच्छ ) नियम में बांध, वश कर । या (नीचा यच्छ) नीचे दबा । ( यः ) जो ( अस्मान् ) हमको ( अभिदासति ) सब प्रकार से नाश करता है या दास या गुलाम बनाता है (अधमं) उस नीच पुरुष को ( तमः ) अति दुःख, शोक पूर्ण अन्धकारमय स्थान, बन्दीगृह या मृत्यु को ( गमय ) प्राप्त करा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अथर्वा ऋषिः। ऋग्वेदे शासो भारद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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