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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
स्व॑स्ति॒दा वि॒शां पति॑र्वृत्र॒हा वि॑मृ॒धो व॒शी। वृषेन्द्रः॑ पु॒र ए॑तु॒ नः सो॑म॒पा अ॑भयंक॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒स्ति॒ऽदा: । वि॒शाम् । पति॑: । वृ॒त्र॒ऽहा । वि॒ऽमृ॒ध: । व॒शी ।वृषा॑ । इन्द्र॑: । पु॒र: । ए॒तु॒ । न॒: । सो॒म॒ऽपा: । अ॒भ॒य॒म्ऽक॒र: ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्तिदा विशां पतिर्वृत्रहा विमृधो वशी। वृषेन्द्रः पुर एतु नः सोमपा अभयंकरः ॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्तिऽदा: । विशाम् । पति: । वृत्रऽहा । विऽमृध: । वशी ।वृषा । इन्द्र: । पुर: । एतु । न: । सोमऽपा: । अभयम्ऽकर: ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
विषय - राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ -
(विशाम् पतिः) प्रजाओं का स्वामी ( वृत्रहा ) राष्ट्रों, नगरों को घेरने हारे शत्रुओं का नाशक ( विमृधः ) शत्रुओं को कुचल डालने वाला, ( वशी ) सब प्रजाओं को और काम क्रोध आदि अन्तः शत्रुओं और इन्द्रियों पर वश करने वाला, ( वृषा ) जलों के वर्षाने वाले मेघ के समान समस्त सुखों का वर्षक, ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यशील, राजा ( स्वस्तिदाः ) सब कल्याण और अविनाशी, उत्तम फल का देने हारा होता है। वही ( सोमपाः ) विद्यासम्पन्न, शमदमादि साधनयुक्त विद्वानों का और सुख देने वाले सब पदार्थों का पालक ( अभयंकरः ) सबको अभय का दान करने हारा होकर ( नः ) हमारे ( पुरः ) नगरों में अध्यक्ष होकर ( एतु ) आवे ।
टिप्पणी -
( प्र० ) स्वस्तिदा विशस्पतिः, इति पाठभेदः, ऋ० ।
(द्वि०) अरुय मित्रखादो अद्भुतः, इति पाठभेदः, ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। ऋग्वेदे शासो भारद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
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