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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
वि रक्षो॒ वि मृधो॑ जहि॒ वि वृ॒त्रस्य॒ हनू॑ रुज। वि म॒न्युमि॑न्द्र वृत्रहन्न॒मित्र॑स्याभि॒दास॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । रक्ष॑: । वि । मृध॑: । ज॒हि॒ । वि । वृ॒त्रस्य॑ । हनू॒ इति॑ । रु॒ज॒ । वि । म॒न्युम् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अ॒मित्र॑स्य । अ॒भि॒ऽदास॑त: ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि रक्षो वि मृधो जहि वि वृत्रस्य हनू रुज। वि मन्युमिन्द्र वृत्रहन्नमित्रस्याभिदासतः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । रक्ष: । वि । मृध: । जहि । वि । वृत्रस्य । हनू इति । रुज । वि । मन्युम् । इन्द्र । वृत्रऽहन् । अमित्रस्य । अभिऽदासत: ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
विषय - राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( इन्द्र ) राजन् ! ( रक्षः ) राक्षस, जिससे राष्ट्र को बचाना आवश्यक है ऐसे हानिकारक पुरुष एवं पदार्थ, रोग व्याधि, कुप्रथा आदि को ( वि जहि ) विनाश कर । हे ( वृत्रहन् ) राष्ट्र के घेरने हारे और विघ्नकारी पुरुष के नाशक ! आप ( वृत्रस्य ) सर्वत्र विघ्नकारी और घेरने हारे उस दुष्ट पुरुष के ( हनू ) दाढों को या प्रहार के साधनों को ( वि रुज ) अच्छी प्रकार तोड़ डाल । हे राजन् ! ( अमिदासतः ) हमारे क्षयकारी या हमें गुलाम बनाने की चेष्टा करने वाले ( अमित्रस्य ) शत्रु के ( मन्युं ) क्रोध, गर्व और अभिमान को ( विरुज ) चूर कर दे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। ऋग्वेदे शासो भारद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
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