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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
    सूक्त - चातनः देवता - शालाग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त

    परि॒ धामा॑न्यासामा॒शुर्गाष्ठा॑मिवासरन्। अजै॑षं॒ सर्वा॑ना॒जीन्वो॒ नश्य॑ते॒तः स॒दान्वाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । धामा॑नि । आ॒सा॒म् । आ॒शु: । गाष्ठा॑म्ऽइव । अ॒स॒र॒न् । अजै॑षम् । सर्वा॑न् । आ॒जीन् । व॒: । नश्य॑त । इ॒त: । स॒दान्वा॑: ॥१४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि धामान्यासामाशुर्गाष्ठामिवासरन्। अजैषं सर्वानाजीन्वो नश्यतेतः सदान्वाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । धामानि । आसाम् । आशु: । गाष्ठाम्ऽइव । असरन् । अजैषम् । सर्वान् । आजीन् । व: । नश्यत । इत: । सदान्वा: ॥१४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे (सदान्वाः) सदा कलह और शोर गुल या रोना आदि मचाने वाली आपत्तियो ! (वः) तुम्हारी (सर्वान्) सब (आजीन्) आक्रमणों और आगमन के उपायों को मैं (अजैषं) जीत चुका हूं, इस लिये अब तुम (इतः) यहां से (नश्यत) भाग जाओ ? हे पुरुषो ! जिस प्रकार (आशुः) शीघ्रगामी घोड़ा (गाष्टाम् इव) अपनी परम अवधि पर पहुंच जाता है उसी प्रकार विद्वान् लोग (आसाम्) इन सब पीड़ाकारिणी विपत्तियों के (धामानि) आश्रयस्थानों तक (परि असरन्) इनका पीछा करें, आक्रमण करें और उन स्थानों से उनको निकाल दें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः । शालाग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः । अग्निभूतपनीन्द्रादिस्तुतिः । १, ३, ५, ६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ४ उपरिष्टाद बृहती। षडृर्चं सूक्तम्।

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