अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
सूक्त - काण्वः
देवता - आदित्यगणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
ह॒तासो॑ अस्य वे॒शसो॑ ह॒तासः॒ परि॑वेशसः। अथो॒ ये क्षु॑ल्ल॒का इ॑व॒ सर्वे॒ ते क्रिम॑यो ह॒ताः ॥
स्वर सहित पद पाठह॒तास॑: । अ॒स्य॒ । वे॒शस॑: । ह॒तास॑: । परि॑ऽवेशस: । अथो॒ इति॑ । ये । क्षु॒ल्ल॒का:ऽइ॑व । सर्वे॑ । ते । क्रिम॑य: । ह॒ता: ॥३२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
हतासो अस्य वेशसो हतासः परिवेशसः। अथो ये क्षुल्लका इव सर्वे ते क्रिमयो हताः ॥
स्वर रहित पद पाठहतास: । अस्य । वेशस: । हतास: । परिऽवेशस: । अथो इति । ये । क्षुल्लका:ऽइव । सर्वे । ते । क्रिमय: । हता: ॥३२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 32; मन्त्र » 5
विषय - रोगकारी क्रिमियों के नाश करने का उपदेश ।
भावार्थ -
(अस्य) इस शत्रु के जिस प्रकार (वेशसः) सेवक और भीतरी अन्तरंग पुरुषों और (परिवेशसः) बाहर के रक्षकों को मार दिया जाता है और जिस प्रकार जो (क्षुल्लकाः) उसके और छोटे मोटे सहचर हों उनको भी मार दिया जाता है उसी प्रकार (अस्य) इस विनाश करने योग्य रोग-जन्तु के (वेशसः) भीतरी आश्रय स्थानों या मुख्य जीवों को और (परिवेशसः) उनसे मिलते जुलते उस वर्ग के अन्य कीटों को भी (हतासः) मारा जाय । (अथो) और (ये) जो (क्षुल्लकाः) अत्यन्त क्षुद्र, झिल्ली के रूप में या अण्डों के रूप में उनके बीजभूत (इव) से हैं (ते सर्वे) वे सब (क्रिमयः) रोगसंक्रामक जीव (हताः) मार दिये जायँ तभी रोग दूर हो सकता है।
टिप्पणी -
(तृ०) ‘क्षुल्लका’ इति नेदं पदं ‘क्षुद्रक’ पदस्य प्राकृतं रूपमपि त्वार्षम् तैत्तिरीयारण्यकगतं ‘क्षुद्रक’ पदमस्य व्याख्यानम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कण्व ऋषिः। आदित्यो देवता। १ त्रिपदा भुरिग् गायत्री। २-५ अनुष्टुभः। चतुष्पदा निचृदुष्णिक्। षडृचं सूक्तम्।
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