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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिपान्महाबृहती सूक्तम् - सत्यानृतसमीक्षक सूक्त

    यः स॑मा॒म्यो॒ वरु॑णो॒ यो व्या॒म्यो॒ यः सं॑दे॒श्यो॒ वरु॑णो॒ यो वि॑दे॒श्यः। यो दै॒वो वरु॑णो॒ यश्च॒ मानु॑षः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । स॒म्ऽआ॒भ्य᳡: । वरु॑ण: । य: । वि॒ऽआ॒भ्य᳡: । य: । स॒म्ऽदे॒श्य᳡: । वरु॑ण: । य: । वि॒ऽदे॒श्य᳡: । य: । दै॒व: । वरु॑ण: । य: । च॒ । मानु॑ष: ॥१६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः समाम्यो वरुणो यो व्याम्यो यः संदेश्यो वरुणो यो विदेश्यः। यो दैवो वरुणो यश्च मानुषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । सम्ऽआभ्य: । वरुण: । य: । विऽआभ्य: । य: । सम्ऽदेश्य: । वरुण: । य: । विऽदेश्य: । य: । दैव: । वरुण: । य: । च । मानुष: ॥१६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    (वरुणः) वह वरुण है (यः) जो (समाम्यः) सब के प्रति समान भाव से रहता है। (वरुणः) वरुण ही ऐसा है (यः व्याम्यः) जो प्रत्येक के प्रति विशेष रूप से भी रहता है। वह वरुण ही है (य संदेश्यः) सब देश में सर्वत्र समान भाव से रहता है और (यः विदेश्यः) जो सब देश में विशेष रूप से रहता है। (वरुणः) वह वरुण ही है (यः दैवः) जो देव, विद्वानों में ओर (यः च मानुषः) जो मनुष्यों में भी समान रूप से रहता है। अर्थात् वरुण-राजा का और प्रभु का सब से समान रूप से और विशेष रूप से भी सम्बन्ध रहना उचित है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। सत्यानृतान्वीक्षणसूक्तम्। वरुणो देवता। १ अनुष्टुप्, ५ भुरिक्। ७ जगती। ८ त्रिपदामहाबृहती। ९ विराट् नाम त्रिपाद् गायत्री, २, ४, ६ त्रिष्टुभः। नवर्चं सूक्तम्।

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