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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 26/ मन्त्र 7
    सूक्त - मृगारः देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - शाक्वरगर्भातिमध्येज्योतिस्त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    यन्मेदम॑भि॒शोच॑ति॒ येन॑येन वा कृ॒तं पौरु॑षेया॒न्न दैवा॑त्। स्तौमि॒ द्यावा॑पृथि॒वी ना॑थि॒तो जो॑हवीमि॒ ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । मा । इ॒दम् । अ॒भि॒ऽशोच॑ति । येन॑ऽयेन । वा॒ । कृ॒तम् । पौरु॑षेयात् । न । दैवा॑त् । स्तौमि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ना॒थि॒त: । जो॒ह॒वी॒मि॒ । ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्मेदमभिशोचति येनयेन वा कृतं पौरुषेयान्न दैवात्। स्तौमि द्यावापृथिवी नाथितो जोहवीमि ते नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । मा । इदम् । अभिऽशोचति । येनऽयेन । वा । कृतम् । पौरुषेयात् । न । दैवात् । स्तौमि । द्यावापृथिवी इति । नाथित: । जोहवीमि । ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    (यत्) जो (मा) मुझ को (इदम्) यह मेरा किया कर्म (अभि-शोचति) हर तरफ़ से सन्ताप देता है और (येन येन या) जिस जिस कारण से प्रेरित होकर (कृतम्) किया हुआ कर्म मुझे सताता है, जो कर्म (पौरुषेयात्) पुरुष =आत्मा या पुरुषों के किये संकल्प से उत्पन्न होकर मुझे सन्ताप देता है, (न दैवात्) जो देव अर्थात् ईश्वरीय काम नहीं है, उनसे (नाथितः) पीड़ित होकर मैं (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी इन के समान परिपालक गुण वाली, मा बाप के तुल्य ईश्वरीय शक्तियों की (स्तौमि) स्तुति करता हूं, और (जोहवीमि) उनको पुकारता हूं कि (ते नः अंहसः मुञ्चतम्) वे दोनों हमें पाप से मुक्त करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मृगार ऋषिः। तृतीयं मृगारसूक्तम्। १ पुरोष्टिजगती। शक्वरगर्भातिमध्येज्योतिः । २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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