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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
    सूक्त - मृगारः देवता - मरुद्गणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    उत्स॒मक्षि॑तं॒ व्यच॑न्ति॒ ये सदा॒ य आ॑सि॒ञ्चन्ति॒ रस॒मोष॑धीषु। पु॒रो द॑धे म॒रुतः॒ पृश्नि॑मातॄं॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्स॑म् । अक्षि॑तम् । वि॒ऽअच॑न्ति । ये । सदा॑ । ये । आ॒ऽसि॒ञ्चन्ति॑ । रस॑म् । ओष॑धीषु । पु॒र: । द॒धे॒ । म॒रुत॑: । पृश्नि॑ऽमातृन् । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्समक्षितं व्यचन्ति ये सदा य आसिञ्चन्ति रसमोषधीषु। पुरो दधे मरुतः पृश्निमातॄंस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्सम् । अक्षितम् । विऽअचन्ति । ये । सदा । ये । आऽसिञ्चन्ति । रसम् । ओषधीषु । पुर: । दधे । मरुत: । पृश्निऽमातृन् । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    मैं (पृश्नि-मातॄन्) पृश्नि=वाणी, माता, सरस्वती या ज्ञान सूर्य या पृथिवी माता की गोद से उत्पन्न हुए (मरुतः) वायुओं के समान सर्वोपकारक विद्वानों को (पुरः) साक्षात् (दधे) आदर से हृदय में धारता हूं, उनको साक्षी, पुरोहित करता हूं। (ये) जो विद्वान् गण (अक्षितं) अविनाशी (उत्सं) ज्ञान प्रवाह को (वि-अचन्ति) विस्तारित करते हैं और (सदा) निरन्तर (ये) जो लोग (ओषधीषु) ओषधियों में से (रसं) रस निकाल कर (आ-सिञ्चन्ति) जनों को पिलाते हैं अथवा ओषधियों में ही नाना रसों को प्रवेश कराते हैं (ते नः ०) वे हमें पाप से मुक्त करें। वायुओं के पक्ष में—जो वायुगण मेघ से अक्षय (उत्स) जल कोष को फैलाते हैं और वनस्पतियों में रसों को बरसाते हैं ऐसे (पृक्षिमातॄन्) मध्यमिका वाक् =विद्युत् माता से उत्पन्न, या आकाश में व्यापक इन तत्वों को मैं साक्षात् अपने वश करता हूं। दोनों पक्षों में विशेषणों का श्लेष स्पष्ट है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मृगार ऋषिः। नाना देवताः। पञ्चमं मृगारसूक्तम्। १-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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