अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 3
सूक्त - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
य आ॑ग॒रे मृ॒गय॑न्ते प्रतिक्रो॒शेऽमा॑वा॒स्ये॑। क्र॒व्यादो॑ अ॒न्यान्दिप्स॑तः॒ सर्वां॒स्तान्त्सह॑सा सहे ॥
स्वर सहित पद पाठये । आ॒ऽग॒रे । मृ॒गय॑न्ते । प्र॒ति॒ऽक्रो॒शे । अ॒मा॒ऽवा॒स्ये᳡ ।क्र॒व्य॒ऽअद॑: । अ॒न्यान् । दिप्स॑त: । सर्वा॑न् । तान् । सह॑सा । स॒हे॒ ॥३६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
य आगरे मृगयन्ते प्रतिक्रोशेऽमावास्ये। क्रव्यादो अन्यान्दिप्सतः सर्वांस्तान्त्सहसा सहे ॥
स्वर रहित पद पाठये । आऽगरे । मृगयन्ते । प्रतिऽक्रोशे । अमाऽवास्ये ।क्रव्यऽअद: । अन्यान् । दिप्सत: । सर्वान् । तान् । सहसा । सहे ॥३६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 3
विषय - न्याय-विधान और दुष्टों का दमन।
भावार्थ -
(ये) जो लोग (आगरे) घर में, (प्रतिक्रोशे) कलह के अवसरो में और (अमावास्ये) एक स्थान पर एकत्र होने के अवसरों और स्थानों में (मृगयन्ते) प्रतिहिंसा के भाव से दूसरों का घात लगाते हैं और (अन्यान्) अपरिचित लोगों की (दिप्सतः) हिंसा करने वाले (क्रव्यादः) परमांसभोजी, बिना अधिकार के दूसरे का माल चुराने और छीनने वाले हैं (तान् सर्वान्) उन सबों को (सहसा) अपने बल से मैं शासक (सहे) अपने नीचे दबा दूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः। सत्यौजा अग्निर्देवता। १-८ अनुष्टुभः, ९ भुरिक्। दशर्चं सूक्तम्॥
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