अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 8
सूक्त - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
यं ग्राम॑मावि॒शत॑ इ॒दमु॒ग्रं सहो॒ मम॑। पि॑शा॒चास्तस्मा॑न्नश्यन्ति॒ न पा॒पमुप॑ जानते ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । ग्राम॑म् । आ॒ऽवि॒शते॑ । इ॒दम् । उ॒ग्रम् । सह॑: । मम॑ । पि॒शा॒चा: । तस्मा॑त् । न॒श्य॒न्ति॒ । न । पा॒पम् । उप॑ । जा॒न॒ते॒ ॥३६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
यं ग्राममाविशत इदमुग्रं सहो मम। पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति न पापमुप जानते ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । ग्रामम् । आऽविशते । इदम् । उग्रम् । सह: । मम । पिशाचा: । तस्मात् । नश्यन्ति । न । पापम् । उप । जानते ॥३६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 8
विषय - न्याय-विधान और दुष्टों का दमन।
भावार्थ -
(मम) मेरा (उग्रं) भयङ्कर, बलवान् (इदम्) यह (सहः) दमनकारी बल (यं ग्रामम्) जिस ग्राम या बस्ति में भी (आ विशते) पहुंच जाता है (तस्मात् पिशाचाः नश्यन्ति) उस ग्राम से डाकू भाग जाते हैं। वहां के लोगों पर वे (पापम्) पाप, दुष्टाचार और लूट मार (न उपजानते) करना ही नहीं जानते, वहां ये बदमाशी करना भूल जाते हैं, या वहां के लोग बुराई का नाम भी नहीं जानते।
टिप्पणी -
“न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो नानाहिताग्निर्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः” छान्दोग्य उप०॥ मेरे राज्य में न चोर, न लुटेरा, न अयाज्ञिक, न व्यभिचारी है, फिर व्यभिचारिणी भी कहां से हो।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः। सत्यौजा अग्निर्देवता। १-८ अनुष्टुभः, ९ भुरिक्। दशर्चं सूक्तम्॥
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