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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 10
    सूक्त - चातनः देवता - सत्यौजा अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त

    अ॒भि तं निरृ॑तिर्धत्ता॒मश्व॑मिवाश्वाभि॒धान्या॑। म॒ल्वो यो मह्यं॒ क्रुध्य॑ति॒ स उ॒ पाशा॒न्न मु॑च्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । तम् । नि:ऽऋ॑ति: । ध॒त्ता॒म् । अश्व॑म्ऽइव । अ॒श्व॒ऽअ॒भि॒धान्या॑ । म॒ल्व: । य: । मह्य॑म् । क्रुध्य॑ति । स: । ऊं॒ इति॑ । पाशा॑त् । न । मु॒च्य॒ते॒ ॥३६.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि तं निरृतिर्धत्तामश्वमिवाश्वाभिधान्या। मल्वो यो मह्यं क्रुध्यति स उ पाशान्न मुच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । तम् । नि:ऽऋति: । धत्ताम् । अश्वम्ऽइव । अश्वऽअभिधान्या । मल्व: । य: । मह्यम् । क्रुध्यति । स: । ऊं इति । पाशात् । न । मुच्यते ॥३६.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 10

    भावार्थ -
    (अश्वाभिधान्या) घोड़े को बांधने वाली रस्सी से जिस प्रकार (अश्वम् इव) अश्व को बांध लिया जाता है उसी प्रकार (निर्ऋतिः) पापों को रोक देने वाली दमनकारिणी शक्ति (तं) उस पापी पुरुष को (अभि धत्ताम्) सब ओर से जकड़ ले। और (यः) (मल्वः) मलिन हृदय, दुष्ट चित्त वाला [ मैलिग्नेंट या मैलीशस ] (मह्यं) मेरे विरुद्ध (क्रुध्यति) क्रोध प्रकट करता है (स उ) वह भी (पाशात्) पाश, दमन, कैद आदि कानूनी दण्ड से (न मुच्यते) छूटने नहीं पाता।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः। सत्यौजा अग्निर्देवता। १-८ अनुष्टुभः, ९ भुरिक्। दशर्चं सूक्तम्॥

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