अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वृषभः, स्वापनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - स्वापन सूक्त
स॒हस्र॑शृङ्गो वृष॒भो यः स॑मु॒द्रादु॒दाच॑रत्। तेना॑ सह॒स्ये॑ना व॒यं नि जना॑न्त्स्वापयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठस॒हस्र॑ऽशृङ्ग: । वृ॒ष॒भ: । य: । स॒मु॒द्रात् । उ॒त्ऽआच॑रत् । तेन॑ । स॒ह॒स्ये᳡न । व॒यम् । नि । जना॑न् । स्वा॒प॒या॒म॒सि॒ ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रशृङ्गो वृषभो यः समुद्रादुदाचरत्। तेना सहस्येना वयं नि जनान्त्स्वापयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽशृङ्ग: । वृषभ: । य: । समुद्रात् । उत्ऽआचरत् । तेन । सहस्येन । वयम् । नि । जनान् । स्वापयामसि ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - निद्रा विज्ञान।
भावार्थ -
आत्मा और इन्द्रियों के परस्पर सम्बन्ध और सोने जागने के रहस्य को लौकिक दृष्टान्तों से स्पष्ट करते हैं। (यः) जो (सहस्र-शृङ्गः) सहस्त्रों, अनन्त किरणों वाला (वृषभः) जीवन शक्ति का या वर्षा का हेतु सूर्य (समुद्राद्) अन्तरिक्ष से या समुद्र तल से (उद्-आचरत्) ऊपर को उठता हुआ प्रतीत होता है वह उसी प्रकार पुनः समुद्र में ही अस्त होता प्रतीत होता है। (तेन) उस (सहस्येन) शक्तिमय पिण्ड के दृष्टान्त से हम भी (जनान्) मनुष्यों को (नि स्वापयामसि) ठीक उसी प्रकार से जागता ओर सोता पाते हैं। अर्थात् जिस प्रकार प्रति दिन प्रातः सूर्य उदित होता है सायंकाल अस्त होता है उसी प्रकार मनुष्य प्रातः उठते हैं रात्रि को सो जाते हैं और जिस प्रकार प्रातः सूर्य में से किरणें सर्वत्र फैलती प्रतीत होती हैं और सायं समय अस्त होते हुए सूर्य के बिम्ब में ही सब किरणें लीन हो जाती हैं उसी प्रकार आत्मा में से ये इन्द्रियां प्रादुर्भूत होतीं हैं और सोते समय पुनः उसमें ही लीन हो जाती और सो जाती हैं। इसका स्पष्टीकरण देखो छान्दोग्य और प्रश्न उपनिपदों में ‘प्राण-प्रकरण’।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। स्वपनः ऋषभो वा देवता। १, ३-६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ७ पुरुस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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