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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वृषभः, स्वापनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्वापन सूक्त

    स्वप्तु॑ मा॒ता स्वप्तु॑ पि॒ता स्वप्तु॒ श्वा स्वप्तु॑ वि॒श्पतिः॑। स्वप॑न्त्वस्यै ज्ञा॒तयः॒ स्वप्त्व॒यम॒भितो॒ जनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वप्तु॑ । मा॒ता । स्वप्तु॑ । पि॒ता । स्वप्तु॑ । श्वा । स्वप्तु॑ । वि॒श्पति॑: । स्वप॑न्तु । अ॒स्यै॒ । ज्ञा॒तय॑: । स्वप्तु॑ । अ॒यम् । अ॒भित॑: । जन॑: ॥५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वप्तु माता स्वप्तु पिता स्वप्तु श्वा स्वप्तु विश्पतिः। स्वपन्त्वस्यै ज्ञातयः स्वप्त्वयमभितो जनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वप्तु । माता । स्वप्तु । पिता । स्वप्तु । श्वा । स्वप्तु । विश्पति: । स्वपन्तु । अस्यै । ज्ञातय: । स्वप्तु । अयम् । अभित: । जन: ॥५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    चिति शक्ति, चेतना या चितिकला की इस देह में क्या दशा होती है सो बतलाते है। जिस प्रकार गृहिणी के चेतन रहने पर भी उसकी माता, पिता, घर का कुत्ता, गृहपति और अन्य सम्बन्धी और अड़ोस पड़ोस के सभी सो जाते हैं और वह अपने पतिकी सेवा में रत रह कर भी जागती है उसी प्रकार यह चेतना भी जागती रहती है इसकी (माता) पार्थिव देह वा ज्ञान इन्द्रियें (स्वप्तु) सो जायँ, (पिता) इसका पालक मस्तिष्क भी (स्वप्तु) सो जाय, (श्वा स्वप्तु) कर्म भी सो जाय, (विश्पतिः) सब इन्द्रिय प्रजाओं का स्वामी मन भी (स्वप्तु) सुषुप्ति दशा में मग्न होजाय (अस्यै ज्ञातयः) इस के ज्ञाति=जानने हारे, भीतरी प्राण भी (स्वपन्तु) निश्चेष्ट होकर सो जाय और (अमितः स्वप्तु) इसके अड़ोस पड़ोस के शेष अंग भी सो जाय तो भी यह मुख्य चेतना=श्वास प्रश्वास करती हुई चेती रहती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। स्वपनः ऋषभो वा देवता। १, ३-६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ७ पुरुस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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