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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वृषभः, स्वापनम् छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - स्वापन सूक्त

    न भूमिं॒ वातो॒ अति॑ वाति॒ नाति॑ पश्यति॒ कश्च॒न। स्त्रिय॑श्च॒ सर्वाः॑ स्वा॒पय॒ शुन॒श्चेन्द्र॑सखा॒ चर॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । भूमि॑म् । वात॑: । अति॑ । वा॒ति॒ । न । अति॑ । प॒श्य॒ति॒ । क: । च॒न । स्रिय॑: । च॒ । सर्वा॑: । स्वा॒पय॑ । शुन॑: । च॒ । इन्द्र॑ऽसखा । चर॑न् ॥५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न भूमिं वातो अति वाति नाति पश्यति कश्चन। स्त्रियश्च सर्वाः स्वापय शुनश्चेन्द्रसखा चरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । भूमिम् । वात: । अति । वाति । न । अति । पश्यति । क: । चन । स्रिय: । च । सर्वा: । स्वापय । शुन: । च । इन्द्रऽसखा । चरन् ॥५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 2

    भावार्थ -

    सोने के लिये अनुकूल स्थिति का उपदेश करते हैं। (वातः भूमिं न अति वाति) प्रचण्ड वायु भूमि पर प्रबल वेग से बह कर घर में वेग से प्रवेश न करे, और (कः चन) कोई पुरुष (न अति पश्यति) खिड़कियों से न झांके। ऐसे स्थान पर हे इन्द्र ! गृह और राष्ट्र के स्वामिन्! राजन् ! (सर्वाः स्त्रियः) सब स्त्रियों को (स्वापय) सुलाओ और (शुनः च) कुत्तों को भी बाहर सुला दो, जिस से घर की रक्षा हो और (इन्द्रसखा) राजा का मित्र बराबर (चरन्) पहरा देता हुआ विचरण करे। अध्यात्म पक्ष में—इन्द्रसखा = आत्मा का मित्र प्राण (चरन्) बराबर विचरण करता रहता है और सब (स्त्रियः) ज्ञानेन्द्रियों और (शुनः) सब कर्मेन्द्रियों को सुला देता है। (वातः) वह प्राण भी (भूमिम्) सुषुप्ति दशा को नहीं तोड़ता और कोई भी इन्द्रिय उस समय देख नहीं सकती।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    ब्रह्मा ऋषिः। स्वपनः ऋषभो वा देवता। १, ३-६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ७ पुरुस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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