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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वाङ्नगिरा
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - बलवर्धक सूक्त
आहं त॑नोमि ते॒ पसो॒ अधि॒ ज्यामि॑व॒ धन्व॑नि। क्रम॑स्वर्श॑ इव रो॒हित॒मन॑वग्लायता॒ सदा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒हम् । त॒नो॒मि॒ । ते॒ । पस॑: । अधि॑ । ज्याम्ऽइ॑व । धन्व॑नि । क्रम॑स्व । ऋश॑:ऽइव । रो॒हित॑म् । अन॑वऽग्लायता । सदा॑ ॥१०१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आहं तनोमि ते पसो अधि ज्यामिव धन्वनि। क्रमस्वर्श इव रोहितमनवग्लायता सदा ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अहम् । तनोमि । ते । पस: । अधि । ज्याम्ऽइव । धन्वनि । क्रमस्व । ऋश:ऽइव । रोहितम् । अनवऽग्लायता । सदा ॥१०१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 101; मन्त्र » 3
विषय - पुष्ट प्रजनन अंग होने का उपदेश।
भावार्थ -
व्याख्या देखो (अथर्व का० ४। ४। ७। (अहं ते पसः) मैं सद्-वैद्य तेरे कामाङ्ग को (तनोमि) दोष रहित करके सुधारता हूं। (धन्वनि अधि ज्याम् इव) जिस प्रकार शिकारी अपने धनुष पर डोरी चढ़ाता है, (अर्श: रोहितम् इव) और जिस प्रकार शिकारी प्रसन्नचित्त से मृग पर दौड़ता है उसी प्रकार (अनवग्लायता) सदा ग्लानिरहित चित्त से (क्रमस्व) अपनी पत्नी के पास जाओ। चित्त में ग्लानि होने से सम्भोग काल में सफलता नहीं होती।
जिस ईश्वर ने संसार को उत्पन्न किया और जिसने सृष्टि उत्पन्न करने वाले अंगों को भी रचा उसकी दृष्टि में कोई पदार्थ अश्लील नहीं। प्रजा सर्जन का भी अपना विज्ञान है। उसका वेद में उपदेश होना आवश्यक है। ग्रीफ़िथ ने यह तत्व न समझ कर इस सूक्त को अश्लील जानकर इसका अनुवाद नहीं किया।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शेपप्रथनकामोऽथर्वाङ्गिरा ऋषिः। ब्रह्मणस्पतिर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।
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