Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
सूक्त - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
शि॒वः क॒पोत॑ इषि॒तो नो॑ अस्त्वना॒गा दे॒वाः श॑कु॒नो गृ॒हं नः॑। अ॒ग्निर्हि विप्रो॑ जु॒षतां॑ ह॒विर्नः॒ परि॑ हे॒तिः प॒क्षिणी॑ नो वृणक्तु ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒व: । क॒पोत॑: । इ॒षि॒त: । न॒: । अ॒स्तु॒ । अ॒ना॒गा: । दे॒वा॒: । श॒कु॒न: । गृ॒हम् । न॒: । अ॒ग्नि: । हि। विप्र॑: । जु॒षता॑म् । ह॒वि: । न॒: । परि॑ । हे॒ति: । प॒क्षिणी॑ । न॒: । वृ॒ण॒क्तु॒ ॥२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवः कपोत इषितो नो अस्त्वनागा देवाः शकुनो गृहं नः। अग्निर्हि विप्रो जुषतां हविर्नः परि हेतिः पक्षिणी नो वृणक्तु ॥
स्वर रहित पद पाठशिव: । कपोत: । इषित: । न: । अस्तु । अनागा: । देवा: । शकुन: । गृहम् । न: । अग्नि: । हि। विप्र: । जुषताम् । हवि: । न: । परि । हेति: । पक्षिणी । न: । वृणक्तु ॥२७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
विषय - राज और राजदूतों का आदर।
भावार्थ -
(इषितः) किसी से प्रेरित (कपोतः) विशेष लक्षणों से युक्त संदेशहर विद्वान् (नः) हमें (शिवाः) शुभ ही (अस्तु) हो। हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (शकुनः) क्योंकि वह शक्तिशाली होकर भी (नः) हमारे (गृह) घर के प्रति (अनागाः) कोई अपराध या हानि न पहुंचावें। वह (अग्निः) अग्नि=आहवनीय अग्नि (हि) के समान (विप्रः) मेधावी पुरुष (नः) हमारे (हविः) चरु के समान पवित्र अन्न को (जुषताम्) प्रेम से स्वीकार करे। जिससे (पक्षिणी) पंखों से युक्त (हेतिः) आयुध बाण या सेना (नः) हम से (परि वृणक्तु) चारों ओर से बचे अर्थात् दूर रहे, हमें न लगे। अर्थात् पराये राष्ट्र के भेजे राजदूत के साथ आदर से वर्ताव करे, उसको अन्न-भोजन का प्रबन्ध कर दे नहीं तो उसके साथ दुर्व्यवहार कर के भावी में भयंकर होते हैं और भयानक अस्त्रों का प्रहार होता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुर्ऋषिः। यमो निर्ऋतिर्वा देवता। १, २ जगत्यौ। २ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें