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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगु देवता - यमः, निर्ऋतिः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त

    यौ ते॑ दू॒तौ नि॑रृत इ॒दमे॒तोऽप्र॑हितौ॒ प्रहि॑तौ वा गृ॒हं नः॑। क॑पोतोलू॒काभ्या॒मप॑दं॒ तद॑स्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यौ । ते॒ । दू॒तौ । नि॒:ऽऋ॒ते॒ । इ॒दम् । आ॒ऽइ॒त: । अप्र॑ऽहितौ । प्रऽहि॑तौ । वा॒ । गृ॒हम् । न॒: ।क॒पो॒त॒ऽउ॒लू॒काभ्या॑म् । अप॑दम् । तत् । अ॒स्तु॒ ॥ ॥२९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यौ ते दूतौ निरृत इदमेतोऽप्रहितौ प्रहितौ वा गृहं नः। कपोतोलूकाभ्यामपदं तदस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यौ । ते । दूतौ । नि:ऽऋते । इदम् । आऽइत: । अप्रऽहितौ । प्रऽहितौ । वा । गृहम् । न: ।कपोतऽउलूकाभ्याम् । अपदम् । तत् । अस्तु ॥ ॥२९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 29; मन्त्र » 2

    भावार्थ -

    हे (निर्ऋते) विपत्ते ! (ते) तेरे (यौ दूतौ) जो दो प्रकार के दूत (इदम् नः गृहं) इस हमारे घर पर (अप्रहितौ) बिना भेजे या (प्र-हितौ) भेजे हुए (एतः) आते हैं (तत्) तब, उस समय जब कि पूर्वोक्त प्रकार से सेना का आक्रमण हो जाय तब हमारा गृह (कपोत-उलूकाभ्याम्) मूर्ख और बुद्धिमान् दोनों प्रकार के दूत पुरुषों के लिए (अपदम् अस्तु) आश्रय के लिये न हो। अर्थात् उस समय हम शत्रु के भले बुरे किसी भी प्रकार के राजदूत को आश्रय नहीं दें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    भृगुर्ऋषिः। यमो निर्ऋतिश्च देवते। १-२ विराड् नामगायत्री। ३ त्र्यवसाना सप्तपदा विराडष्टिः। तृचं सूक्तम्॥

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