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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
    सूक्त - उपरिबभ्रव देवता - शमी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापशमन सूक्त

    यस्ते॒ मदो॑ऽवके॒शो वि॑के॒शो येना॑भि॒हस्यं॒ पुरु॑षं कृ॒णोषि॑। आ॒रात्त्वद॒न्या वना॑नि वृक्षि॒ त्वं श॑मि श॒तव॑ल्शा॒ वि रो॑ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य:। ते॒ । मद॑: । अ॒व॒ऽके॒श: । वि॒ऽके॒श: । येन॑ । अ॒भि॒ऽहस्य॑म् । पुरु॑षम् । कृ॒णोषि॑ । आ॒रात् । त्वत् । अ॒न्या । वना॑नि । वृ॒क्षि॒ । त्वम् । श॒मि॒ । श॒तऽव॑ल्शा । वि । रो॒ह॒ ॥३०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते मदोऽवकेशो विकेशो येनाभिहस्यं पुरुषं कृणोषि। आरात्त्वदन्या वनानि वृक्षि त्वं शमि शतवल्शा वि रोह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य:। ते । मद: । अवऽकेश: । विऽकेश: । येन । अभिऽहस्यम् । पुरुषम् । कृणोषि । आरात् । त्वत् । अन्या । वनानि । वृक्षि । त्वम् । शमि । शतऽवल्शा । वि । रोह ॥३०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 30; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    शमी वृक्ष के दृष्टान्त से राजा के कर्त्तव्यों का उपदेश करते हैं। हे शमि ! शत्रुओं को शमन करने हारी शक्ति ! शमी के मद या रस के समान (ते) तेरा (यः) जो (मदः) हर्ष या उन्माद (अव-केशः) बालों को खोलने वाला (वि-केशः) या बालों को विकृत कर देने वाला है जिससे तू (पुरुषं अभिहस्यं कृणोषि) पुरुष को उपहास का पात्र बना देती है हे शमि ! उस मद से (शत-वल्शा) सैकड़ों शाखावाली होकर (त्वं) तू शमी वृक्ष के समान ही (विरोह) बढ़। (त्वत् आरात्) तेरे पास से (अन्या वनानि) और वृक्षों के समान उच्छेद करने योग्य विरोधी राजाओं को (वृक्षि) काट डालता हूं। राजा का मद अपने अधीन आए शत्रु की चाहे तो इतनी दुर्दशा करे उसके बाल खुलवादे या मूंड दे और उसको सबका उपहासका पात्र बनादे। मन्त्री आस पास के और राजाओं का नाश कर राजा को मुख्य बनाता है और सब राज्य प्रबन्ध को, राजा को मूल में रखकर, उसके शाखा रूप में रख देता है। इससे राज्य की शक्ति बढ़ती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उपरिबभ्रव ऋषिः। शमी देवता। १ जगती। २ त्रिष्टुप्। ३ चतुष्पदा ककुम्मती अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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