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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
    सूक्त - उपरिबभ्रव देवता - शमी छन्दः - चतुष्पदा शङ्कुमत्यनुष्टुप् सूक्तम् - पापशमन सूक्त

    बृह॑त्पलाशे॒ सुभ॑गे॒ वर्ष॑वृद्ध॒ ऋता॑वरि। मा॒तेव॑ पु॒त्रेभ्यो॑ मृड॒ केशे॑भ्यः शमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑त्ऽपलाशे । सुऽभ॑गे । वर्ष॑ऽवृध्दे । ऋत॑ऽवरि । मा॒ताऽइ॑व । पु॒त्रेभ्य॑: । मृ॒ड॒ । केशे॑भ्य: । श॒मि॒ ॥३०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहत्पलाशे सुभगे वर्षवृद्ध ऋतावरि। मातेव पुत्रेभ्यो मृड केशेभ्यः शमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहत्ऽपलाशे । सुऽभगे । वर्षऽवृध्दे । ऋतऽवरि । माताऽइव । पुत्रेभ्य: । मृड । केशेभ्य: । शमि ॥३०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 30; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (शमि) हे शमि ! हे शान्तिकारिणी राजशक्ते ! राजसभे ! हे (बृहत्पलाशे) बड़े ज्ञान सम्पन्न पुरुषों से सम्पन्न, हे (सुभगे) ऐश्वर्य सम्पन्न ! हे (वर्षवृद्धे) सुखादि वर्षण करने में सबसे अधिक बलशालिनी हे (ऋतावरी) सब सत्य ज्ञान = विज्ञान एवं कानून की रक्षा करने वाली ! तू (केशेभ्यः) देशों को, राष्ट्र के सुन्दर मूर्धन्य पुरुषों को (पुत्रेभ्यः माता इव) पुत्रों को माता के समान (मृड) सुखी कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उपरिबभ्रव ऋषिः। शमी देवता। १ जगती। २ त्रिष्टुप्। ३ चतुष्पदा ककुम्मती अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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