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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - सरस्वती
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
अ॑पा॒नाय॑ व्या॒नाय॑ प्रा॒णाय॒ भूरि॑धायसे। सर॑स्वत्या उरु॒व्यचे॑ वि॒धेम॑ ह॒विषा॑ व॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पा॒नाय॑ । वि॒ऽआ॒नाय॑ । प्रा॒णाय॑ । भूरि॑ऽधायसे । सर॑स्वत्यै । उ॒रु॒ऽव्यचे॑ । वि॒धेम॑ । ह॒विषा॑ । व॒यम् ॥४१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अपानाय व्यानाय प्राणाय भूरिधायसे। सरस्वत्या उरुव्यचे विधेम हविषा वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठअपानाय । विऽआनाय । प्राणाय । भूरिऽधायसे । सरस्वत्यै । उरुऽव्यचे । विधेम । हविषा । वयम् ॥४१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
विषय - अध्यात्म शक्तियों की साधना।
भावार्थ -
(अपानाय) अपान, (वि-आनाय) व्यान और (भूरिधायसे) बहुत बलों को धारण करने वाले (प्राणाय) प्राण और (उरु-व्यचे) विशाल आत्मा में व्यापक या नाना लोकों में व्यापक (सरस्वत्यै) ज्ञानधारा की प्राप्ति के लिये (वयम्) हम (हविषा) हवि अर्थात् जीव, मस्तिष्क शक्ति या मन से (विधेम) उद्योग करें।
अपान = मुख नासिका से बाहर के वायु को पुनः भीतर लेना। प्राण = भीतर की वायु को नासिका से बाहर फेंकना। व्यान = ऊपर नीचे दोनों ओर की गति न करके प्राण का स्थिर रहना। अथवा कण्ठ से ऊर्ध्वगत शक्ति प्राण, कण्ठ से नाभि तक की शक्ति व्यान, नाभि से गुदा तक की शक्ति अपान है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। बहवः उत चन्द्रमा देवता। १ भुरिगनुष्टुप्, २ अनुष्टुप्, ३ त्रिष्टुप्, तृचं सूक्तम्॥
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