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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - मन्युः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - परस्परचित्तैदीकरण सूक्त
अव॒ ज्यामि॑व॒ धन्व॑नो म॒न्युं त॑नोमि ते हृ॒दः। यथा॒ संम॑नसौ भू॒त्वा सखा॑याविव॒ सचा॑वहै ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । ज्याम्ऽइ॑व । धन्व॑न: । म॒न्युम् । त॒नो॒मि॒ । ते॒ । हृ॒द: । यथा॑ । सम्ऽम॑नसौ । भू॒त्वा । सखा॑यौऽइव । सचा॑वहै ॥४२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः। यथा संमनसौ भूत्वा सखायाविव सचावहै ॥
स्वर रहित पद पाठअव । ज्याम्ऽइव । धन्वन: । मन्युम् । तनोमि । ते । हृद: । यथा । सम्ऽमनसौ । भूत्वा । सखायौऽइव । सचावहै ॥४२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 42; मन्त्र » 1
विषय - क्रोध को दूर करके परस्पर मिलकर रहने का उपदेश।
भावार्थ -
क्रोध को दूर करके मित्रभाव से रहने का उपदेश करते हैं। मित्र अपने क्रोधी पुरुष के क्रोध उतारने के लिये इस प्रकार कहता है—हे मित्र ! (धन्वनः ज्याम् इव) जिस प्रकार धनुर्धर पुरुष शान्त होकर अपने धनुष से डोरी को उतार लेता है और किसी की हिंसा नहीं करता उसी प्रकार मैं शान्त पुरुष (ते हृदः) तेरे हृदय से (मन्युम्) क्रोध को (अव तनोमि) उतारने का यत्न करता हूं। (यथा) जिससे हम दोनों (सं-मनसौ) एक समान चित्त वाले (भूत्वा) होकर (सखायौ इव) दो मित्रों के समान एक ही होकर (सचावहै) सदा मिले रहें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - परस्परचित्तैककरणे भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्युर्देवता १, ३ अनुष्टुभः (१, २ भुरिजौ) तृचं सूक्तम्॥
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