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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 42/ मन्त्र 2
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - मन्यु
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - परस्परचित्तैदीकरण सूक्त
सखा॑याविव सचावहा॒ अव॑ म॒न्युं त॑नोमि ते। अ॒धस्ते॒ अश्म॑नो म॒न्युमुपा॑स्यामसि॒ यो गु॒रुः ॥
स्वर सहित पद पाठसखा॑यौऽइव । स॒चा॒व॒है॒ । अव॑ । म॒न्युम् । त॒नो॒मि॒ । ते॒ । अ॒ध:। ते॒ । अश्म॑न: । म॒न्युम् । उप॑ । अ॒स्या॒म॒सि॒ । य: । गु॒रु: ॥४२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सखायाविव सचावहा अव मन्युं तनोमि ते। अधस्ते अश्मनो मन्युमुपास्यामसि यो गुरुः ॥
स्वर रहित पद पाठसखायौऽइव । सचावहै । अव । मन्युम् । तनोमि । ते । अध:। ते । अश्मन: । मन्युम् । उप । अस्यामसि । य: । गुरु: ॥४२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 42; मन्त्र » 2
विषय - क्रोध को दूर करके परस्पर मिलकर रहने का उपदेश।
भावार्थ -
क्रोध के विरोध का उपदेश करते हैं। हम दोनों (सखायौ इव) दो मित्रों के समान (सचावहै) मिल कर रहें और यदि इस मित्रतापूर्वक रहते हुए कभी क्रोध भी आ जाय तो प्रत्येक हममें से अपना यही कर्त्तव्य समझे कि (ते मन्युं अव तनोमि) मैं तेरे क्रोध को शान्त करूं। यदि फिर भी क्रोध उमड़ना चाहे तो यह विचार हो कि (अश्मनः अध इव) भारी शिला के समान भारी पदार्थ के नीचे जिस प्रकार उड़ता हुआ पदार्थ दब जाता है फिर नहीं उड़ता उसी प्रकार (ते मन्युम्) तेरे क्रोध को भी (यः गुरुः) जो हमारा गुरु, उपदेशक (उपास्यामसि) उस उपदेष्टा गुरु के अधीन कर दें जिसके गौरव से दब कर पुनः क्रोध न उठे। क्रोध आजाने पर गुरु के समीप जाकर कलह के कारण को मिटा लेना चाहिये जिससे फिर क्रोध न सतावे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - परस्परचित्तैककरणे भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्युर्देवता १, ३ अनुष्टुभः (१, २ भुरिजौ) तृचं सूक्तम्॥
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