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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
मे॒ष इ॑व॒ वै सं च॒ वि चो॒र्वच्यसे॒ यदु॑त्तर॒द्रावुप॑रश्च॒ खाद॑तः। शी॒र्ष्णा शिरोऽप्स॒साप्सो॑ अ॒र्दय॑न्नं॒शून्ब॑भस्ति॒ हरि॑तेभिरा॒सभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमे॒ष:ऽइ॑व । वै । सम् । च॒ । वि । च॒ । उ॒रु । अ॒च्य॒से॒ । यत् । उ॒त्त॒र॒ऽद्रौ । उप॑र: । च॒ । खाद॑त: । शी॒र्ष्णा: । शिर॑: । अप्स॑सा । अप्स॑: । अ॒र्दय॑न् । अं॒शून् । ब॒भ॒स्ति॒ । हरि॑तेभि: । आ॒सऽभि॑:॥४९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मेष इव वै सं च वि चोर्वच्यसे यदुत्तरद्रावुपरश्च खादतः। शीर्ष्णा शिरोऽप्ससाप्सो अर्दयन्नंशून्बभस्ति हरितेभिरासभिः ॥
स्वर रहित पद पाठमेष:ऽइव । वै । सम् । च । वि । च । उरु । अच्यसे । यत् । उत्तरऽद्रौ । उपर: । च । खादत: । शीर्ष्णा: । शिर: । अप्ससा । अप्स: । अर्दयन् । अंशून् । बभस्ति । हरितेभि: । आसऽभि:॥४९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
विषय - कालाग्नि का वर्णन।
भावार्थ -
प्रलयकाल की वह अग्नि किस प्रकार ब्रह्माण्ड को खा जाती है इसे स्पष्ट करते हैं। हे अग्ने ! प्रलयकालाग्ने ! परमात्मन् ! तू (मेष इव) मेष = सूर्य के समान (उरु) इस विशाल ब्रह्माण्ड में (सं अच्यसे च वि अच्यसे च) संकुचित होता और विशेष या विविध रूप से फैल जाता है। जिस प्रकार (खादतः) खाते हुए पुरुष के (उत्तरद्रौ) ऊपर के जबाड़े में (उपरः=उपलः) नीचला जबाड़ा लग कर दोनों भोजन को चबाते हैं उसी प्रकार तुम भी इस द्यौ और पृथिवी दोनों पाटों के बीच में समस्त संसार को पीस कर खा जाते हो और इस ब्रह्माण्ड के (शिर:) ऊपर के भाग को अपने (शीर्ष्णा) ऊपर के भाग से और (अप्ससा अप्सुः) अपने समस्त व्यक्ति रूप सामर्थ्य से इस रूपवान् जगत् को (अर्दयन्) पीड़ित करता हुआ—पीसता हुआ (हरितेभिः आसभिः) अपने हरणशील संहारकारी तीव्र प्रलयकारी मुखों = विक्षेपकारी शक्तियों से (अंशून) इन समस्त लोकों को (बभस्ति) सा जाता है, लील जाता है।
सौर मण्डल के खण्डप्रलय के समान ही महाप्रलय की कल्पना विद्वान् वैज्ञानिकों ने मानी है। अर्थात् उस समय सूर्य की ज्वालाएं बुझते दीपक के समान कभी बड़ी दूर तक फैलेंगी, कभी बुझेंगी और फिर फैलेंगी। वे ज्वालाएं दूर पास के सब ग्रहों को भस्म करेंगी। वेद ने उन ज्वालाओं को ‘हरित आस’ नाम से पुकारा है । यही प्रलय या अप्यय की रीति अध्यात्मक्षेत्र में आत्मा और उसके मन प्राण इन्द्रियों में होती हैं। वहां भी मेष = आत्मा उतरद्रु, उपर = प्राण, अपान। अंशु = इन्द्रियगण, हरित आस = सूक्ष्मप्राण हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गार्ग्य ऋषिः। अग्निर्देवता। १ अनुष्टुप, २ जगती, ३ निचृज्जगती। तृचं सूक्तम्॥
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