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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अभययाचना सूक्त
तर्द॒ है पत॑ङ्ग॒ है जभ्य॒ हा उप॑क्वस। ब्र॒ह्मेवासं॑स्थितं ह॒विरन॑दन्त इ॒मान्यवा॒नहिं॑सन्तो अ॒पोदि॑त ॥
स्वर सहित पद पाठतर्द॑ । है । पत॑ङ्ग । है । जभ्य॑ । है । उप॑ऽक्वस । ब्र॒ह्माऽइ॑व । अस॑म्ऽस्थितम् । ह॒वि: । अन॑दन्त: । इ॒मान् । यवा॑न् । अहि॑सन्त: । अ॒प॒ऽउदि॑त ॥५०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तर्द है पतङ्ग है जभ्य हा उपक्वस। ब्रह्मेवासंस्थितं हविरनदन्त इमान्यवानहिंसन्तो अपोदित ॥
स्वर रहित पद पाठतर्द । है । पतङ्ग । है । जभ्य । है । उपऽक्वस । ब्रह्माऽइव । असम्ऽस्थितम् । हवि: । अनदन्त: । इमान् । यवान् । अहिसन्त: । अपऽउदित ॥५०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
विषय - अन्नरक्षा के लिए हानिकारक जन्तुओं का नाश।
भावार्थ -
(है तर्द) हे हिंसक जन्तो ! (है पङ्ग) हे टिड्डीदल ! (है जभ्य) हे हिंसा योग्य वा विनाश करने योग्य और (है उपक्कस) है टिड्डे आदि कीटो (ब्रह्मा इव) जिस प्रकार ब्रह्मा (असंस्थितम् इविः) असमाप्त या असंस्कृत हवि को नहीं लेता उसी प्रकार तुम लोग भी (असंस्थितं हविः) असंस्थित, अपरिपक्क, अधकची, अरक्षित अन्न को (अनदन्तः) न खाते हुए और (इमान् यवान्) इन जौ धान्यों को (अहिंसन्तः) हानि न पहुँचाते हुए (अप उदित) परे चले जाओ। धान्यरक्षक लोग उक्त कृषि-नाशक जन्तुओं से खेती को बचावें और ऐसा प्रबन्ध करें कि वे उनको हानि न पहुँचा सके।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अभयकामोऽथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। १ विराड् जगती। २-३ पथ्या पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
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