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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
उत्सूर्यो॑ दि॒व ए॑ति पु॒रो रक्षां॑सि नि॒जूर्व॑न्। आ॑दि॒त्यः पर्व॑तेभ्यो वि॒श्वदृ॑ष्टो अदृष्ट॒हा ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । सूर्य॑: । दि॒व: । ए॒ति॒ । पु॒र: । रक्षां॑सि । नि॒ऽजूर्व॑न् । आ॒दि॒त्य: । पर्व॑तेभ्य: । वि॒श्वऽदृ॑ष्ट: । अ॒दृ॒ष्ट॒ऽहा ॥५२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्सूर्यो दिव एति पुरो रक्षांसि निजूर्वन्। आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । सूर्य: । दिव: । एति । पुर: । रक्षांसि । निऽजूर्वन् । आदित्य: । पर्वतेभ्य: । विश्वऽदृष्ट: । अदृष्टऽहा ॥५२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
विषय - तमोविजय और ऊर्ध्वगति।
भावार्थ -
जिस प्रकार (सूर्यः) सूर्य (दिवः) द्युलोक, विशाल आकाश में (पुरः रक्षांसि निजूर्वन्) अपने आगे आये सब विघ्नकारी अन्धकारों और मेघों का नाश करता हुआ (उद् एति) उदित होता है उसी प्रकार यह जीव (सूर्यः) सब इन्द्रियों और शरीर का प्रेरक, विज्ञानवान् होकर (पुरः रक्षांसि निजूर्वन्) अपने आगे आये समस्त विघ्नकर तामस भावों, राजसी विचारों, काम क्रोध आदि आचरणों को जो उसे आगे नहीं बढ़ने देते, उन्हें जीर्ण शीर्ण, छिन्न-भिन्न करता हुआ (दिवः उत् एति) उस तेजोमय ब्रह्म के प्रति उत्तम पद को चला जाता है। और वही (आदित्यः) सब प्राणशक्तियों को अपने भीतर लेने वाला वशी, जितेन्द्रिय, ज्ञानी, सूर्य के समान (अदृष्टहा) उस अ-प्रत्यक्ष परलोक में भी गति करनेवाला होकर (विश्व-दृष्टः) विश्व-सर्वव्यापक प्रभु से दया दृष्टि से देखा जाकर (पर्वतेभ्यः) आवरणकारी मेघों के समान आवरणों से भी (उत् एति) ऊपर चला जाता है।
सूर्यपक्ष में—(विश्व-दृष्टः अदृष्टहा सूर्यः पर्वतेभ्यः उद् एति) समस्त प्राणियों को प्रत्यक्ष सूर्य अदृष्ट कष्टों का विनाशक होकर मेघों या पर्वतों के पीछे से उदय होता है।
टिप्पणी -
१, २ एतयोऋग्वेदे अगस्त्य ऋषिः। अबोषधिसूर्या देवताः।
‘उदपप्तदसौ सूर्यः पुरुविश्वा निजूर्वन्’। ‘आदित्यः पर्वतेभ्यो’। इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भागलिर्ऋषिः। मन्त्रोक्ता बहवो देवताः। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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