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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 54

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अग्नीषोमौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अमित्रदम्भन सूक्त

    अ॒स्मै क्ष॒त्रम॑ग्नीषोमाव॒स्मै धा॑रयतं र॒यिम्। इ॒मं रा॒ष्ट्रस्या॑भीव॒र्गे कृ॑णु॒तं यु॒ज उत्त॑रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । क्ष॒त्रम् । अ॒ग्नी॒षो॒मौ॒ । अ॒स्मै । धा॒र॒य॒त॒म् । र॒यिम् । इ॒मम् । रा॒ष्ट्रस्य॑ । अ॒भि॒ऽव॒र्गे । कृ॒णु॒तम् । यु॒जे। उत्ऽत॑रम् ॥५४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मै क्षत्रमग्नीषोमावस्मै धारयतं रयिम्। इमं राष्ट्रस्याभीवर्गे कृणुतं युज उत्तरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । क्षत्रम् । अग्नीषोमौ । अस्मै । धारयतम् । रयिम् । इमम् । राष्ट्रस्य । अभिऽवर्गे । कृणुतम् । युजे। उत्ऽतरम् ॥५४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 54; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (अग्नि-सोमौ) अग्नि = सेनापति और सोम = पुरोहित ब्राह्मण गण (अस्मै) इसी राजा के उपयोग के लिये (रयिम्) अपने ज्ञान और बल को (धारयतम्) धारण करो और (इमम्) इस राजा को (राष्ट्रस्य अभीवर्गे) राष्ट्र की रक्षा के कार्य में (कृणुतम्) समर्थ करो और इसी प्रयोजन के लिए मैं राष्ट्र का पुरोहित उसको (उत्तरम्) अन्यों से उत्कृष्ट जान कर (युजे) इस पद पर नियुक्त करता हूँ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। अग्नीषोमौ देवते। अनुष्टभः। तृचं सूक्तम्॥

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