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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 59/ मन्त्र 1
अ॑न॒डुद्भ्य॒स्त्वं प्र॑थ॒मं धे॒नुभ्य॒स्त्वम॑रुन्धति। अधे॑नवे॒ वय॑से॒ शर्म॑ यच्छ॒ चतु॑ष्पदे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒डुत्ऽभ्य॑: । त्वम् । प्र॒थ॒मम् । धे॒नुऽभ्य॑:। त्वम् । अ॒रु॒न्ध॒ति॒ ।अधे॑नवे । वय॑से । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । चतु॑:ऽपदे ॥५९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अनडुद्भ्यस्त्वं प्रथमं धेनुभ्यस्त्वमरुन्धति। अधेनवे वयसे शर्म यच्छ चतुष्पदे ॥
स्वर रहित पद पाठअनडुत्ऽभ्य: । त्वम् । प्रथमम् । धेनुऽभ्य:। त्वम् । अरुन्धति ।अधेनवे । वयसे । शर्म । यच्छ । चतु:ऽपदे ॥५९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 59; मन्त्र » 1
विषय - गृह-पत्नी के कर्तव्य, पशुरक्षा और गोपालन।
भावार्थ -
हे (अरुन्धति) अरुन्धति ! अरोधनशीले ! सब को मुक्त करनेहारी, सुखकारिणी गृहपत्नि ! (प्रथमम्) पहले (त्वं) तू (अनहुद्भ्यः) बैलों (धेनुभ्यः) गायों और (अधेनवे वयसे) गाय के अतिरिक्त पांच बरस तक के बछड़ों और (चतुष्पदे) चौपायों के लिये (शर्म यच्छ) सुख या सुखदायी रहने का घर या शाला बना दे। और उनको पृथक् पृथक् शालाओं में रख। बैलों, गौओं, बड़े बछड़ों और अन्य पशुओं की अलग अलग शालाएं बनायें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। रुद्र उत मन्त्रोक्ता देवताः। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।
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