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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
निर॒मुं नु॑द॒ ओक॑सः स॒पत्नो॒ यः पृ॑त॒न्यति॑। नै॑र्बा॒ध्येन ह॒विषेन्द्र॑ एनं॒ परा॑शरीत् ॥
स्वर सहित पद पाठनि: । अ॒मुम् । नु॒दे॒ । ओक॑स: । स॒ऽपत्न॑: । य: । पृ॒त॒न्यति॑ । नै॒:ऽबा॒ध्ये᳡न । ह॒विषा॑ । इन्द्र॑: । ए॒न॒म् । परा॑ । अ॒श॒री॒त् ॥७५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
निरमुं नुद ओकसः सपत्नो यः पृतन्यति। नैर्बाध्येन हविषेन्द्र एनं पराशरीत् ॥
स्वर रहित पद पाठनि: । अमुम् । नुदे । ओकस: । सऽपत्न: । य: । पृतन्यति । नै:ऽबाध्येन । हविषा । इन्द्र: । एनम् । परा । अशरीत् ॥७५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 1
विषय - शत्रु को मार भगाने का उपदेश।
भावार्थ -
हे वीर पुरुष ! (यः) जो (सपत्नः) हमारे राष्ट्र पर हमारे बराबर अपना प्रभुत्व दिखाने वाला शत्रु (पृतन्यति) हम पर सेना द्वारा आक्रमण करता है। (अमुम्) उसको (ओकसः) हमारे घर से, देश से (निर्-नुद) निकाल डाल। हे इन्द्र, राजन् ! (एनम्) इस शत्रु को तो (नैर्बाध्येन हविषा) निर्बाध = बाधा से रहित हवि = आज्ञा और उपाय से (पराशरीत्) मार डाल। अर्थात् उक्त प्रकार के शत्रु को मार डालने की ऐसी आज्ञा और उपाय करे जिसमें कोई बाधा न डाल सके।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षयकामः कबन्ध ऋषिः। मन्त्रोक्ता इन्द्रश्च देवताः। १-२ अनुष्टुभौ, ३ षट्पदा जगती। तृचं सूक्तम्॥
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