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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 91/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिरा देवता - यक्षमनाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्षमनाशन सूक्त

    इ॒मं यव॑मष्टायो॒गैः ष॑ड्यो॒गेभि॑रचर्कृषुः। तेना॑ ते त॒न्वो॒ रपो॑ऽपा॒चीन॒मप॑ व्यये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । यव॑म् । अ॒ष्टा॒ऽयो॒गै: । ष॒ट्ऽयो॒गेभि॑: । अ॒च॒र्कृ॒षु॒: । तेन॑ । ते॒ । त॒न्व᳡: । रप॑:। अ॒पा॒चीन॑म् । अप॑ । व्य॒ये॒ ॥९१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं यवमष्टायोगैः षड्योगेभिरचर्कृषुः। तेना ते तन्वो रपोऽपाचीनमप व्यये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । यवम् । अष्टाऽयोगै: । षट्ऽयोगेभि: । अचर्कृषु: । तेन । ते । तन्व: । रप:। अपाचीनम् । अप । व्यये ॥९१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 91; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    भव-रोग के विनाश का उपाय बतलाते हैं। (इमम्) इस (यवम्) शरीर इन्द्रिय आदि संघात को मिलाये रखने वाले आत्मा को (अष्टायोगैः) यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि, इन आठ प्रकार के योगाङ्गो द्वारा और (षड् यौगैः) शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और मुमुक्षुत्व इन छः के योग, सम्पत्ति से (अचर्कृषुः) कर्षण करते हैं अर्थात् आत्मभूमि का शोधन करते हैं। (तेन) इस योगाभ्यास से (ते) तेरे (तन्वः) आत्मा और शरीर के (रपः) पाप और रोग (अपाचीनम्) दूर (अप व्यये) करने का उपदेश करता हूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वङ्गिराः ऋषिः। बहवो देवताः। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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