Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 90/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - रुद्रः
छन्दः - आर्षी भुरिगुष्णिक्
सूक्तम् - इषुनिष्कासन सूक्त
नम॑स्ते रु॒द्रास्य॑ते॒ नमः॒ प्रति॑हितायै। नमो॑ विसृ॒ज्यमा॑नायै॒ नमो॒ निप॑तितायै ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । रु॒द्र॒ । अस्य॑ते । नम॑: । प्रति॑ऽहितायै । नम॑: । वि॒ऽसृ॒ज्यमा॑नायै । नम॑: । निऽप॑तितायै ॥९०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते रुद्रास्यते नमः प्रतिहितायै। नमो विसृज्यमानायै नमो निपतितायै ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । रुद्र । अस्यते । नम: । प्रतिऽहितायै । नम: । विऽसृज्यमानायै । नम: । निऽपतितायै ॥९०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 90; मन्त्र » 3
विषय - रोग-पीड़ाओं को दूर करने के उपायों का उपदेश।
भावार्थ -
रोगपीड़ा की चारों दिशाओं में चिकित्सा का उपदेश करते हैं। हे रुद्र ! रुलाने वाले कारण ! (ते) तेरे (अस्यते) फेंकते हुए तुझे (नमः) हम वश करें। यदि उस समय तुझे न वश कर सकें तो (प्रतिहितायै नमः) तेरे फेंकने के लिये तैयार बाण या शूलकारी तीक्ष्ण धार को (नमः) हम वश करें। यदि उसे भी न रोक सकें तो (विसृज्यमानाये नमः) जब छोड़ ही दिया हो ऐसे बाण को मध्य में वश करें अथवा (निपतितायै) जब गिर पड़े तब उसको (नमः) वश करें।
पीड़ाजनक रोग को बाण से उपमा देकर उसके वश करने का उपदेश किया है। प्रथम रोग के कारणों को दूर करें और दूसरे जब रोग के कारणों से रोग उत्पन्न होने को हों तब उनको रोकें और तीसरे जब उत्पन्न हो रहे हों तब रोकें और चौथे जब रोग आ भी जाय तब भी उसको वश करें।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १-२ अनुष्टुभौ। ३ आसुरी भुरिग् उष्णिक्। तृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें