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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 93

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 93/ मन्त्र 2
    सूक्त - शन्ताति देवता - भवः, शर्वः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वस्त्ययन सूक्त

    मन॑सा॒ होमै॒र्हर॑सा घृ॒तेन॑ श॒र्वायास्त्र॑ उ॒त राज्ञे॑ भ॒वाय॑। न॑म॒स्येभ्यो॒ नम॑ एभ्यः कृणोम्य॒न्यत्रा॒स्मद॒घवि॑षा नयन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मन॑सा । होमै॑: । हर॑सा । घृ॒तेन॑ । श॒र्वाय॑ । अस्त्रे॑ । उ॒त ।राज्ञे॑ । भ॒वाय॑ । न॒म॒स्ये᳡भ्य: । नम॑: । ए॒भ्य॒: । कृ॒णो॒मि॒ । अ॒न्यत्र॑ । अ॒स्मत् । अ॒घऽवि॑षा: । न॒य॒न्तु॒ ॥९३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनसा होमैर्हरसा घृतेन शर्वायास्त्र उत राज्ञे भवाय। नमस्येभ्यो नम एभ्यः कृणोम्यन्यत्रास्मदघविषा नयन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मनसा । होमै: । हरसा । घृतेन । शर्वाय । अस्त्रे । उत ।राज्ञे । भवाय । नमस्येभ्य: । नम: । एभ्य: । कृणोमि । अन्यत्र । अस्मत् । अघऽविषा: । नयन्तु ॥९३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 93; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (शर्वाय) शत्रुहिंसक, (अस्त्रे) शत्रुओं पर बाणों को फेंकने वाले, और (राज्ञे) राजा और (भवाय) सामर्थ्यवान् सब कार्यों के उत्पादक पुरुषों के लिये, (मनसा) अपने चित्त से, (होमैः) दानों, धन-राशियों से, (हरसा) अपनी शक्ति से (घृतेन) और अपने तेज या स्नेहमय पुष्टिकारक पदार्थों से हम सहायता करें। (एभ्यः) इन (नमस्येभ्यः) आदरयोग्य पुरुषों के लिये (नमः) मैं आदर (कृणोमि) करता हूँ। और चाहता हूँ कि ये लोग (अघ-विषाः) पापों के ज़हर या विष से पूर्ण, या पापों से पूर्ण, नीच व्यक्तियों को (अस्मत् अन्यत्र) हम से अलग (नयन्तु) करें, हम में पापियों को न रहने दें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंतातिर्ऋषिः। रुद्रो देवता। १-३ त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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