ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 111/ मन्त्र 4
ऋ॒भु॒क्षण॒मिन्द्र॒मा हु॑व ऊ॒तय॑ ऋ॒भून्वाजा॑न्म॒रुत॒: सोम॑पीतये। उ॒भा मि॒त्रावरु॑णा नू॒नम॒श्विना॒ ते नो॑ हिन्वन्तु सा॒तये॑ धि॒ये जि॒षे ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒भु॒क्षण॑म् । इन्द्र॑म् । आ । हु॒वे॒ । ऊ॒तये॑ । ऋ॒भून् । वाजा॑न् । म॒रुतः॑ । सोम॑ऽपीतये । उ॒भा । मि॒त्रावरू॑णा । नू॒नम् । अ॒श्विना॑ । ते । नः॒ । हि॒न्व॒न्तु॒ । सा॒तये॑ । धि॒ये । जि॒षे ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋभुक्षणमिन्द्रमा हुव ऊतय ऋभून्वाजान्मरुत: सोमपीतये। उभा मित्रावरुणा नूनमश्विना ते नो हिन्वन्तु सातये धिये जिषे ॥
स्वर रहित पद पाठऋभुक्षणम्। इन्द्रम्। आ। हुवे। ऊतये। ऋभून्। वाजान्। मरुतः। सोमऽपीतये। उभा। मित्रावरुणा। नूनम्। अश्विना। ते। नः। हिन्वन्तु। सातये। धिये। जिषे ॥ १.१११.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 111; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
विषय - विद्वानों के शिल्पियों के समान कर्तव्य ।
भावार्थ -
( ऊतये ) ज्ञान और रक्षा के लिये मैं ( ऋभुक्षणम् ) सत्य ज्ञान से प्रकाशमान विद्वान् पुरुषों के बसाने वाले उनके आश्रय, अति तेजस्वी पद पर विराजमान् आचार्य और राजा को (इन्द्रम्) ‘इन्द्र’ (आहुवे) स्वीकार करता और कहता हूं। और (सोमपीतये) ऐश्वर्य के प्राप्त करने के लिये (ऋभून्) अति बल से और सत्य ज्ञान से प्रकाशित शक्तिशाली और विद्वान् पुरुषों को (वाजान्) वेगवान्, बलवान्, ऐश्वर्यवान् और ( मरुतः ) वायु के समान बलवान् विद्वान रूप से ( आहुवे ) प्राप्त करूं । ( उभा ) दोनों (मित्रा वरुणा) स्नेही मित्र और सर्वश्रेष्ठ (अश्विना) अश्वारोही राजा और सेनापति, देह में प्राण और अपान और गृह में दोनों स्त्री पुरुष (ते) वे सब ( नः ) हम लोगों को ( सातये ) सुखों को प्राप्त करने ( धिये ) ज्ञान और कर्मों के सम्पादन करने और ( जिषे ) शत्रुओं का विजय करने के लिये (नः) हमें ( हिन्वन्तु ) प्रेरित करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः-१-४ जगती । ५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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