ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
अरा॑धि॒ होता॑ नि॒षदा॒ यजी॑यान॒भि प्रयां॑सि॒ सुधि॑तानि॒ हि ख्यत् । यजा॑महै य॒ज्ञिया॒न्हन्त॑ दे॒वाँ ईळा॑महा॒ ईड्याँ॒ आज्ये॑न ॥
स्वर सहित पद पाठअरा॑धि । होता॑ । नि॒ऽसदा॑ । यजी॑यान् । अ॒भि । प्रयां॑सि । सुऽधि॑तानि । हि । ख्यत् । यजा॑महै । य॒ज्ञिया॑न् । हन्त॑ । दे॒वान् । ईळा॑महै । ईड्या॑न् । आज्ये॑न ॥
स्वर रहित मन्त्र
अराधि होता निषदा यजीयानभि प्रयांसि सुधितानि हि ख्यत् । यजामहै यज्ञियान्हन्त देवाँ ईळामहा ईड्याँ आज्येन ॥
स्वर रहित पद पाठअराधि । होता । निऽसदा । यजीयान् । अभि । प्रयांसि । सुऽधितानि । हि । ख्यत् । यजामहै । यज्ञियान् । हन्त । देवान् । ईळामहै । ईड्यान् । आज्येन ॥ १०.५३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
विषय - उसका स्वागत।
भावार्थ -
उत्तम, अति अधिक ज्ञान देनेहारा, (होता) प्रेम से बुलानेहारा, गुरुवत् पूज्य पुरुष (नि-सदा) उत्तम आसन पर बैठकर नित्य देववत् आराधना करने योग्य है। क्योंकि वह (सु-धितानि) उत्तम, स्थिर, हित ज्ञानों को (अभि ख्यत्) साक्षात् करके आप्तवत् अन्यों को उन्हीं स्थिर सत्यों का उपदेश करता है। (हन्त) यह बड़े सौभाग्य का विषय है कि हम (यज्ञियान् देवान्) दान, मान पूजा सत्कारादि से आदरणीय विद्वान् पुरुषों की (यजामहै) पूजा कर सकें और (ईड्यान्) स्तुति करने योग्य जनों की हम लोग (आज्येन) प्रकट, व्यक्त वचन से वा जल वा घृतादि पदार्थों से (ईडामहै) सत्कार करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः–१–३, ६, ११ देवाः। ४, ५ अग्नि सौचिकः॥ देवता-१-३, ६–११ अग्निः सौचीकः। ४, ५ देवाः॥ छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप् २, ४ त्रिष्टुप्। ५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ६, ७, ९ निचृज्जगती। १० विराड् जगती। ११ पादनिचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
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